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उनकी आज्ञा बिना कदापि ग्रहण न करने चाहिएं। अतएव तीनों करण और तीनों योगों से चौर्यकर्म का परित्याग करे पुनः निस्रोक्त भावनाओं द्वारा इस महाव्रत की रक्षा करनी चाहिए जैसेकि -
उग्गहअणुरण्णावणया '१ उग्गहसी मजाणणया २ सयमेव उग्गहं अणुगिरहणया ३ अणुण्णविय परिभुंजण्या ४ साहारण भत्तपाणं अणुविय पडिभुंजण्या ५
१ श्रवग्रहानुज्ञापना-जिस स्थान पर स्त्री, पशु और नपुंसक नहीं रहते तथा यावन्मात्र शुद्ध और निर्दोष तथा एकान्त वस्तियें हैं किन्तु साधुओं के वास्ते नहीं बनाई गई हैं; नाँ ही उन वस्तियों में सचित्त मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु वा वनस्पति के वीजादि हैं नाँ ही उनमें विशेष त्रसादि जीव हैं उन स्थानों में भी स्वामी की आज्ञा ग्रहण किए विना कदापि साधु न ठहरे ।
२ श्रनुज्ञातसीमापरिज्ञान- आज्ञा ली जाने पर जो उस स्थान पर साधु के लेने योग्य पदार्थ पहिले ही पड़े हों जैसेकि - कांकरादि-वही ग्रहण करे ।
३ स्वयमेवत्र्ावग्रहअनुग्रहणता - पीठादि के वास्ते वृक्षादि छेदन न करवाए और उपाश्रय के विषम स्थान को सम आदि करने की चेष्टा न करे । डंश मशकादि के हटाने के वास्ते अग्नि धूमादि न करवाए अपितु जो फलकादि लेने योग्य हों उनकी वहां पर ही आज्ञा लेकर ठहर जाए ।
४ साधर्मिकावग्रह अनुज्ञाप्यपरिभुंजनता-जिस स्थान में पहिले ही साधर्मिक जन ठहरे हुए हों उस स्थान पर उनकी श्राज्ञा लेकर ही ठहरना चाहिए। ५ साधारण भक्तपान अनुज्ञाप्यप्रतिभुंजनता - आहार पानी साधारण हो और वह गुरु आदि की आज्ञा विना न लेना चाहिए। अपितु प्रत्येक क्रिया करते समय विनय को मुख्य रखना चाहिए क्योकि विनय ही धर्म और विनय ही तप है ।
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इसी प्रकार चतुर्थ महाव्रत भी शुद्ध पालन करना चाहिए जैसेकि - देव, मनुष्य और पशु सम्बन्धी सर्वथा मैथुन का परित्याग करना चाहिए। ब्रह्मचर्यव्रत तीनों करणों और तीनों योगों से शुद्ध पालन करते हुए फिर पांचों भावनाओं द्वारा इस पवित्र व्रत की रक्षा करनी चाहिए कारण कि इस महावूत की आराधना से अन्य सर्व व्रत भी भली प्रकार से आराधन किये जा सकेंगे । इत्थी पसु पंडग संसत्तगसयणासणवज्जण्या १ इत्थी कहाँ विवजया २ इत्थीं इंदियाण मालोयणवञ्जण्या ३ पुव्वरय पुच्वकीलियागं अणुसरण्या ४ पीताहार विवज्जण्या ५