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________________ ( ११८ ) असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह, और पांचही संवर जैसेकि-अहिंसा सत्य, अचौर्यकर्म, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इनका विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। इन पांचही प्रकरणों की बड़ी सुंदर रीति से व्याख्या की गई है। इनका लौकिक और लोकोत्तर दोनों रीतियों से फल वर्णन किया गया है आस्तिकों के लिये यह सूत्र परमोपयोगी है। इसकी शिक्षा आत्मकल्याण और निर्वाषपद की प्राप्ति के लिए अत्यन्त उपयोगी है । इस सूत्र के ६२ लक्ष १६ सहन पद थे। इसका उपांग पुष्पचूलिका सूत्र है। ११ विपाकसूत्र-इस सूत्र के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में दुःखविपाक का वर्णन है अर्थात् जिन जीवों ने धर्मविषयक दुर्बोध होने के कारण हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह एवं अन्याय आदि कुकर्मों से अपना जीवन व्यतीत किया है उनके उक्त कर्मों का ऐहलौकिक और पारलौकिक फल दिखलाया गया है । क्योंकि जव आत्मा के साथ पापकर्मो का अनुवंध हो जाता है तब वह कई जन्मों तक उसका फल अनुभव करता रहता है। यह बात भली प्रकार दिखाई गई है कि पाप कर्म करना तो बड़ा ही सहज है परन्तु जय दुःख रूप कटु फल भोगने पड़ते हैं तव जीव किस प्रकार परमदुःख मय जीवन व्यतीत करने लग जाता है । इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंधमें अन्यायपूर्ण कृत्यों का भली भांति दिग्दर्शन कराया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध में सुखविपाक का अधिकार है। जिन जीवों ने सुपात्रदान दिये हैं उनको फलरूप ऐहलौकिक और पारलौकिक सुखों का दिग्दर्शन कराया गया है। साथ ही जिस प्रकार वे सुलभवोधी भावको उपार्जन कर, सुखपूर्वक निर्वाणपद की प्राप्ति करेंगे उसका भी वर्णन किया गया है। इस सूत्र के अध्ययन करने से भारतवर्ष के पूर्व समय की दंडनीति का भी भली भांति बोध हो जाता है । जिन्हों ने शुभ वा अशुभ कर्म किये थे उनकी दशाओं का भी ज्ञान हो जाता है और इस सूत्रके वीस अध्ययन है । १० दुःखविपाक के नाम से और १० सुखविपाक के नाम से सुप्रसिद्ध हो रहे हैं। एक करोड़ चौरासी लक्ष वत्तीस सहस्र १८४३२००० इसकी पदसख्या है और प्रत्येक वाचना के संख्यात अनुयोगद्वार तथा संख्यात ही वर्गों की संख्या है और इस सूत्र का उपांग पुष्पचूलिका है । १२ दृष्टिवादांग सूत्र-इस सूत्र में सर्व वस्तुओं कासविस्तर वर्णन है। यद्यपि इस स्थान पर चतुर्दश पूर्वोका प्रसंग आरहा है परन्तु दृष्टिवादांगसूत्र के पांच विभाग हैं यथा-परिक्रम १ सूत्र २ पूर्व ३ अनुयोग ४ और चूलिका ५ फिर गणितशास्त्र के ग्रहण करने के लिये प्रथम पोडश परिक्रम सूत्र वर्णन किए गए
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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