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( १०६ ) अर्थात् तिरस्कार वा उपालंभादि द्वारा उनको सुशिक्षित करना २ जो व्यक्ति आचार्यादि के यथार्थ गुणों का गान करते हैं उनका धन्यवाद वा उनके सद्गुणों का प्रकाश करना ३ जो महाव्यक्ति आत्मिक गुणों में पूर्ण हैं उनकी सेवा करना क्योंकि उनकी सेवा से आत्मिक गुणों की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार वर्णसज्वलनता का वर्णन करते हुए अव सूत्रकार भारप्रत्यवतारणता विनय के विषय में कहते है:
सेकिंतं भारपच्चोरूहणया ? भारपच्चोरूहणया चउचिहा पएणत्ता तंजहा-असंगहीयं परिजण संगहित्ता भवइ १ सेहं आयारगोयरगाहित्ता भवइ २ साहम्मियस्सागलायमाणम्स अहाथामं वेयावच्चे अभ्मुहित्ताभवइ ३ साहम्मियाणं अहिकरणंसि उप्पण्णं स तत्थ अणिस्सितो बसिएवसितो अप्पक्खग्गाही मज्झत्थ भावभूए समंववहारमाणे तस्सअहिकरणस्सखामणविउ समणयाए सयासमियं अम्मुठेत्ता भवइ कहंतुसाहस्म्यिा अप्पसद्दा अप्प झंझा अप्पकलहा अप्प कसाया अप्पतुमंतुमा संजम बहुला संवर बहुला समाहि बहुला अप्पमत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणाणं एवंचणं विहरेज्जा ।। ४ । सेत भारपच्चोरूहणया एस खलुसा थेरेहिं भगवंतेहिं अट्टविहा गणिसंपया पएणत्ता तिमि योत्थिया दसा समत्ता।
अर्थ--(प्रश्न) हे भगवन् ! भारप्रत्यवतारणताविनय किसे कहते हैं? (उत्तर) हे शिप्य! यदि श्राचार्य गच्छ के भार को शिष्य के सपुर्द कर दे उसका नाम भारप्रत्यवतारणता विनय है। उसके चार भेद प्रतिपादन किए गए हैं जैसे कि-असगृहीत को संगृहीत करना १ शिप्य को प्राचार गोचार सिखाना २ ग्लानिक स्वधर्मी की यथाशक्ति वैयावृत्य करना ३ साधर्मिक व्यक्तियों में क्लेश उत्पन्न होजाने पर निपक्ष होकर माध्यस्थ भाव धारण करके सम्यग्प्रकार से श्रुतव्यवहार को प्रयोग में लाकर क्लेश को शान्त करने के लिए सदेवकाल उद्यत रहना ताकि क्लेश के स्थान पर समाधि उपस्थित हो । फिर अप्रमत्त होकर संयम और तपके द्वारा अपनी आत्माकी भावना चिन्तन करता हुआ विचरे । इस प्रकार उक्त विनय का पालन करना भारप्रत्यवतारणता विनय कहा जाता है।
___ सारांश--शिष्य ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! भार प्रत्यवतारणता विनय किसे कहते है और उसके कितने भेद प्रतिपादन किये गए हैं ? इसके उत्तर में गुरु ने प्रतिपादन किया कि-हे शिष्य ! जिस प्रकार राजा अपने