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( १०३ ) और विद्यार्थीकी आत्माका हित हो उसी प्रकार वाचना देनी चाहिए अर्थात् योग्यता देखकर ही सूत्रका अर्थदान करना चाहिए क्योंकि-जिस प्रकार मिट्टी के कच्चे (श्राम) घट (घड़े) में जल डालने से घट और जल दोनों का विध्वंस होजाता है ठीक उसी प्रकार अयोग्य व्यक्ति को योग्यता विना पठन कराने से उस व्यक्ति और ज्ञान दोनों का विनाश हो जाता है इसलिए जिस प्रकार उस विद्यार्थी का ज्ञान द्वारा हित हो सके वही क्रम ग्रहण करना उचित है। इस कथन का सारांश यह है कि-पठन इस लिए कराया जाता है किज्ञान की प्राप्ति हो और चित्त की समाधि (शांति) उत्पन्न की जाए। जब अयोग्यता से पठन कराया गया तव उक्त दोनों कार्यों की सफलता पूर्णतया नहीं हो सकती अतएव हित वाचना द्वारा अपना और शिष्य का हित करना चाहिए जव हितवाचना की समाप्ति हो जावे तव फिर चौथी निशेषवाचना द्वारा सर्व प्रकार से शंका समाधान करना चाहिए तथा प्रारब्धसूत्र की समाप्ति के पश्चात् ही अन्य सूत्र का प्रारंभ करना चाहिए अथवा प्रमाण निक्षेप नय और सप्तभंगादि के द्वारा सूत्र के भावों को जानना चाहिए क्योंकि-यावन्मात्र प्रश्न हैं उनके समाधान सर्व निशेष वाचना द्वारा किए जाते है अतः निशेषवाचना अवश्यमेव पठन करानी चाहिए । इस प्रकार श्रुतविनय के कहे जाने के पश्चात् अव सूत्रकार विक्षपणा विनय विषय कहते हैं:- सेकिंत विखेवणा विणए ? विखवणा विणय चउबिहे पणता तंजहाअदिछ धम्म दिठ पुव्वगत्ताए विणसत्ता भवइ १ दिठ्ठपुव्वगं साहम्मियत्ताए विणएत्ता भवइ २ चुय धम्माउ धम्मे ठावइत्ता भवइ ३ तस्सेव धम्मस्स हियाए सुहाए खमाए निसेस्साए अणुगामियत्ताए अम्मुछेत्ता भवइ॥४॥ सेतं विखेवणा भवइ ॥
अर्थ-(प्रश्न) हे भगवन् ! विक्षेपणा विनय किसे कहते है ? (उत्तर) हे शिष्य ! विक्षेपणा विनयके चार भेद प्रतिपादन किए गए हैं जैसे कि-जिन आत्माओंने पहिले सम्यक्त्वरूप धर्म का अनुभव नहीं किया उन आत्माओंको सम्यक्त्वरूप धर्म मे स्थापन करना चाहिए १ जिन्होंने सम्यक्त्वरूप धर्म प्राप्तकर लिया है उन जीवों को साधर्म्यतामें स्थापन करना चाहिए २ जो धर्म से पतित होते हों उन्हें धर्म में स्थिर करना चाहिए ३ और सदैवकाल श्रुत और चारित्र धर्म का महत्व दिखलाना चाहिए जैसे कि-हे भव्यजीवो! श्रुत और चारित्र धर्म हितकारी है, सुखकारी है, समर्थ है, मोक्षके लिये मुख्य साधन है, जन्म २ में साथ चलनेवाला है । अतएव इसको अवश्यमेव धारण करना चाहिए ॥४॥