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( ८ ) वहुत से मुनियों के वास्ते वर्षाकाल के लिये प्रातिहारिक पीठ फलक शय्या
और संस्तारक ग्रहण करने वाला हो २ जो क्रियानुष्ठान जिस काल में करना है वह उसी काल में विधिपूर्वक क्रियानुष्ठान करनेवाला हो ॥३॥ दीनागरु वा श्रुतगुरु तथा रत्नाकर की पूजा सत्कार करने वाला हो ॥४॥ सो इसी का नाम संग्रहपरिज्ञा नामक संपत् है ॥८॥
__ साराश-सातवीं संपत् के पश्चात् शिष्यने आठवीं संग्रह परिज्ञा नामक संपत् के विषय प्रश्न किया कि हे भगवन् ! संग्रहपरिक्षा संपत् किसे कहते है और उसके कितने भेद हैं ? गुरु ने इसके उत्तर में प्रतिपादन किया कि-पदार्थों का संग्रह करना उसी को संग्रहपरिज्ञानामक संपत् कहते हैं परन्तु इसके चार भेद हैं जैसे कि-आचार्य अपने गच्छवासी साधुओं के लिए क्षेत्रों का वर्णकाल के लिये ध्यान रक्खे जैसे कि-अमुक साधु के लिए अमुक क्षेत्र की आवश्यकता है क्योंकि-वह साधु विद्वान् है वा तपस्वी है अथवा रोगी है इत्यादि कारणों को समझकर क्षेत्रोंका ध्यान अवश्य रक्खे ।।
यदि साधुओं को यथायोग्य क्षेत्र की प्राप्ति प्राचार्य के द्वारा नहीं हो सकती तव वे उस आचार्य के गच्छ को छोड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा करेंगे अतएव प्राचार्य योग्य क्षेत्रों का संग्रह अपनी बुद्धि से अवश्यमेव करले जिस. से वर्षाकाल (चतुर्मास ) के आने पर उन साधुओं को संगृहीत क्षेत्रों में चतुमांस करने की आज्ञा प्रदान की जा सके । साथही वर्षाकाल के लिये पीठ (चौकी) फलक (पादा) शय्या-(वस्ती) संस्तारक, जो लेकर फिर गृहस्थ को प्रत्यर्पण किये जाते हैं उक्त पदार्थों के ग्रहण करने वाला हो क्योंकि-चतुमास में वर्षा के प्रयोग से बहुत से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाती है सो उन जीवों की रक्षा के लिये उक्त पदार्थो के ग्रहण करने की अत्यन्त आवश्यकता रहती है तथा सूक्ष्म निगोद वा सूक्ष्मत्रस जीव (कुंथु आदि) चतुर्मास के काल में विशेष उत्पन्न हो जाते हैं अतः उक्त पदार्थों का अवश्यमेव साधुओं के लिये संग्रह करे । यदि पीठादि के विना चतुर्मास काल में निवास किया जाएगा तो भूमि आदि में विशेषतया त्रसजीवों के संहार होने की संभावना की जा सकती है क्योंकि-उक्त काल में संमूच्छिम जीव विशेप उत्पन्न होते रहते हैं पुन. जिस २ काल में जिन २ क्रियाओं को करना है जैसे कि-प्रतिलेखना. प्रतिक्रमण और स्वाध्याय तथा ध्यान कायोत्सर्गादि वे क्रियाएँ उसी २ काल में समाप्त करनी चाहिए अर्थात् समय विभाग के द्वारा कालक्षेप करना चाहिये । जव समय विभाग के द्वारा कालक्षेप किया जाता है तव आत्मा ज्ञानावरणीयादि कर्मों को क्षयकर निजानन्द में प्रविष्ट हो जाता है। साथ ही आलस्य का परित्याग