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ही कोलाहल करना चाहती है, यदि दर्शक उपहासादि के लिए ही एकत्र हुए हों तो केवल किसी समय स्खलित भावादि को देखकर उपहास ही करना चाहते हैं अतएव परिपत् भावों को देख कर ही वाद में प्रवृत्ति करनी चाहिए ॥
क्षेत्र को देखकर ही वाद करना चाहिए क्योंकि-यदि क्षेत्राधिपति धर्म का द्वेषी है वा उस समय उस क्षेत्र में जो माननीय पुरुष है वह अनार्य है अथवा धर्म चर्चा के उद्देश्य को नहीं जानता, एव उसको सभापति बनाने की संभावना हो तथा निर्णय उसके हाथ में हो इत्यादि सर्व भावों को देखकर ही वाद के लिए प्रवृत्ति करनी चाहिए।३। पट् द्रव्यों में से किस द्रव्य विषय वाद करना है, उस विषय में मेरा सत्व है या नहीं इसका अनुभव करके तथा द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूप पदार्थों के स्वरूप को जानकर ही वाद करना चाहिए जैसेकि द्रव्य से धर्म अधर्म आकाश काल पुद्गल और जीव यह छै द्रव्य हैं ? क्षेत्र से ऊर्ध्व १ अधो २ और तिर्यक् यह तीन लोक है २ काल से-भूत भविष्यत् और वर्तमान यह तीनों काल है ३ भाव से-औदयिक २ औपशमिक २ क्षायिक ३ क्षयोपशमिक ४ पारिणामिक ५ और सन्निपात ६ यह भाव हैं तथा सात नय प्रत्यक्ष अनुमान उपमान और आगम यह चार प्रमाण नाम स्थापना द्रव्य और भाव यही चारों निक्षप वा निश्चय पक्ष वा व्यवहार पक्ष सामान्य भाव वा विशेष भाव कारण और कार्य इस प्रकार अनेक शास्त्रोक्त भावों को जानकर और अपनी शक्ति को देखकर ही वाद विपय में उद्यत होना चाहिए क्योंकि इस प्रकार करने से किसी प्रकार की भी क्षति होने की संभावना नहीं है अपितु धर्मप्रभावना तो अवश्यमेव होजायगी इसी का नाम प्रयोगमतिसंपत् है अव सूत्रकार प्रयोगमति के पश्चात् संग्रहपरिज्ञा नामक आठवीं संपत् विषय कहते है:
सेकिंतं संग्गह परिणा नाम संपया ? संग्गहपरिणा नाम संपया चउचिहा पएणत्ता तंजहा-बासा सुखत्ते पाडलेहित्ता भवा; वहुजण पाउगत्ताए १ बहुजण पाउगत्ताए पाडिहारिय पीढ फलग सेज्जा संथारंय उगिरिहत्ताभवइ२ . कालणं कालं समाणइत्ता भवइ ३ आहागुरू संपूएत्ता भवइ ४ सेतं संग्गहपरिणा नामं संपया ॥ ८॥
अर्थ-शिष्य ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! संग्रहपरिज्ञा नामक संपत् किसे कहते है ? तव गुरु ने उत्तर में प्रतिपादन किया कि-हे शिष्य ! संग्रह परिज्ञा नामक संपत् के चार भेद हैं जैसेकि-आचार्य बहुत से भिक्षुओं के लिए वर्षाकाल मे ठहरने के लिए क्षेत्रों को प्रतिलखन करनेवाला हो १