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से उत्तर विशिष्ट वोध होता चला जाता है इसी लिये मति के चार भेद किये गए हैं परन्तु मध्य में अस्खलित भावसे वा अन्तभीचको छोड़कर ही जो विशिष्ट अवबोध प्राप्त होता चला गया है इसी लिये मति ज्ञान प्रामाणिक माना गया है किन्तु अविच्छिन्न भावसे संकलावद्ध उत्तरोत्तर विशिष्ट भाव की वृद्धि होती चली गई है जैसे कि-किसी व्यक्ति को स्वप्न आगया जब वह उठकर बैठा तव वह कहन लगा कि मुझे कोई स्वप्न आया है इस अव्यक्त दशा का नाम अवग्रहमति है फिर ईहाविशिष्ट विचार में प्रविष्ट होकर कहता है कि हाँ, मुझे स्वप्न अवश्य आया है जब स्वप्न का आना अवश्य सिद्ध हो गया तव फिर वह उस स्वप्न को स्मृति पथ में लाता है जब ठीक स्मृति पथ में आगया उसी का नाम वायमति है फिर अवायमति द्वारा जो स्वप्न स्मृति पथ में किया था फिर उसका दृढ़तापूर्वक निश्चय करलना कि-हां, अमुक स्वप्न आया है उसी का नाम धारणामति है इस प्रकार मति के मुख्य चार भेद वर्णन किये गये हैं अव सूत्रकार अवग्रहादि मतियों के उत्तर भेदों के विषय में कहते हैं:
सेकिंतं प्रोग्गह मइसंपया ? श्रोग्गहमइसंपया छावहा पण्णत्ता तंजहाखिप्पं उगिएहइ १ बहु उगिएहइ २ वहु विहं उगिएहइ ३ धूवं उगिएहइ ४ अणिस्सियं उगिएहइ ५ असंदिद्धं उगिरहइ ६ सेतं उग्गह मइसंपया एवं ईहामइ वि एवं अवायमइ वि सर्कितं धारणा मइ संपया।धारणामइ संपया छविहाँ पएणत्ता तंजहा—बहुधरेति १ बहु विहं धरेति २ पोराणं घरेइ ३ दुधरं धरेइ ४ अणिस्सियं धरेइ ५ असंदिद्धं धरेइ ४ सेत धारणामइसंपया ॥६॥ । अर्थ-शिष्य ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! अवग्रहमति किसे कहते हैं ? इसके उत्तर में गुरु कहने लगे कि हे शिष्य ! अवग्रहमति के छ भेद वर्णन किए गए हैं जैसे कि-शीघ्र ही अन्य के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उसके भावों को अवगत कर लेना १ बहुत प्रश्नों के भावों को एक ही बार अवगत करलेना २ पृथक् २ प्रकार से प्रश्नों के भावों को समझ लेना ३ निश्चल भाव से प्रश्नों के भाव को अधिगत कर लेना ४विना किसी की सहायता के प्रश्नों के भावों को जान लेना अर्थात् विस्मरणशील न होना५ विना संदेह प्रश्नों के भावों को अवगत कर लेना अर्थात् स्पष्टतया प्रश्नों के भावों को जान लेना सो इसी प्रकार ईहामति और अवायमति के विषय में भी जान लेना चाहिए ।