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दिगुण युक्त पठन कराना चाहिए ३ यावन्मात्र अर्थ का निर्वाह कर सके तावन्मात्र ही योग्यतानुसार अर्थवाचना देनी चाहिए ४ यही वाचना संपत् के भेद हैं।
साराँश-शिष्य ने प्रश्न किया हे भगवन् ! वाचना संपत् किसे कहते हैं ? इसके उत्तर में गुरु ने प्रतिपादन किया कि हे शिष्य ! जिस प्रकार शिप्य को सूत्र चा अर्थ का वोध होसके उसी प्रकार पठन व्यवस्था की जाए उसी का नाम वाचना संपत् है परन्तु इस संपत् के चार भेद हैं जैसे कि-शिष्य की योग्यता देखकर ही उस को सूत्र के पठन की आज्ञा देनी चाहिए जैसे कि यह शिप्य इस के योग्य है अत इसको यही सूत्र पढ़ाना चाहिए १ योग्यता देखकर ही वाचना देनी चाहिए जैसेकि-यह शिष्य इतनी वाचना सुखपूर्वक संभाल सकता है २ फिर योग्यता देखकर ही संहिता १ पद २ पदार्थ ३ पदविग्रह ४ शंका ५ और समाधानादि ६ विषय परिश्रम करना चाहिए ३ तथा यावन्मात्र वह अर्थका निर्वाह कर सके तावन्मात्र ही उसे अर्थ प्रदान करना चाहिए ४ कारण कि योग्यता पूर्वक पाठ्य व्यवस्था की हुई हो तो शिष्य के हृदय में अर्थ ' अधिगत हो जाता है यदि योग्यता विना वाचना दीजायगी तो सूत्र की आशातना अविनय होगी और पठन करने वाले के चित्त को विक्षेप उत्पन्न हो जायगा।
पांचवीं वाचनासंपत् के पश्चात् अव छठी मतिसंपत् के विषय में सूत्रकार कहते हैं :
से किंतं मइ संपया? मइ संपया चउन्विहा पएणत्ता तंजहा-उग्गह मइ संपया १ ईहामइसंपया २ अवायमइ संपया ३ धारणामइ संपया ४ ॥ __ अर्थ-शिष्यने प्रश्न कियाकि-हेभगवन् ! मति संपत् किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरु ने कहा कि हे शिष्य ! मति संपत् चार प्रकार से प्रतिपादन की गई है जैसे कि-अवग्रहमति १ ईहामति २ अवायमति ३ और धारणामति ४।
साराश--सामान्य अववोधका नाम अवग्रहमति है अर्थात् पदार्थों का सामान्य प्रकार से जो वोध होता है उसे अवग्रहमति कहते हैं परन्तु सामान्य वोधमें जो फिर विवार उत्पन्न होता है उस विचार से जो विशिष्ट वोधकी प्राप्ति होती है उसीका नाम ईहामति है फिर ईहामति से जो पदार्थों का भाव अवगत होता है उसी का नाम अवायमति है । अवगत होने के पश्चात जो फिर उस ज्ञानकी धारणा कीजाती है उसी का नाम धारणामति है । पूर्व