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हैं परन्तु पर गुण की अपेक्षा असत्रूप हैं इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत्
और असत् इन दोनों धर्मों के धारण करने वाला होता है जिस प्रकार एक पुरुष पिता और पुत्र दोनों धर्मों को धारण करलता है यद्यपि यह दोनों धर्म परस्पर विरोधी भाव को उत्पादन करने वाले हैं तथापि सापेक्षिक होने से दोनों सत्रूप माने जासकते हैं क्योंकि वह पुरुप अपने पिता की अपेक्षा से पुत्रत्व भाव को प्राप्त है और अपने पुत्र की अपेक्षा से उसमें पितृत्व भाव भी ठहरा हुआ है इसी प्रकार प्रत्यक पदार्थ स्वगुण मे सत्रूप और परगुण में असत् रूप से माना जासकता है तथा अनेकान्त वाद मे जिस प्रकार सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चरित्र का वर्णन किया गया है उसका उसी प्रकार परिचय होना चाहिए । इसी का नाम स्वसमयवित् है।
३२ पर समयवित्--पर समय का भी वेत्ता होना चाहिए, अर्थात् जैनमत के इलावा यावन्मात्र अन्यमत हैं, उनका भीभलीभांति बोध होना चाहिए, कारण कि-जवतक उस का आत्मा परमत से परिचित नहीं हुआ, तवतक वह स्वमत मे भी पूर्णतया दृढता धारण नहीं कर सकता अत स्वमत में दृढ़ता तव ही हो सकती है जब कि परमतका भली भांति वोध प्राप्त किया जाए । श्रीसिद्धसेन दिवाकरने लिखा है कि-जावइया वयणपहा तावइया चेव इंति नयवाया तावतश्चैव परसमयाः १ इस कथन का यह सारांश है, कि यावन्मात्र वचन के मार्ग हैं, तावन्मात्र ही नयवाक्य हैं, सो यावन्मात्र नयवाक्य हैं, तावन्मात्र ही परसमय है, अर्थात् तावन्मात्र ही परसमय के वाक्य हैं । अतएव पर समय से अवश्यमेव परिचित होना चाहिए। एवं क्रियावादी १ अक्रियावादी २ अज्ञानवादी ३ और विनयवादी४ इन मतों का भी वोध होना चाहिए । क्रिया वादी के मत में जीव की अस्ति मानी जाती है, क्योंकि-कर्ता की चेष्टा का ही नाम क्रिया है सो कर्त्ता सिद्ध होने पर ही क्रिया की सिद्धि की जा सकती है । अतएव क्रिया वादी के मत में जीव की अस्ति मानी जाती हैं परन्तु इस मत के १८४ भेद है उन भेदों में जीव की अस्ति कई प्रकार से वर्णन की गई है, जैसे कि-किसीने जीवकी अस्ति कालाधीन स्वीकार की है, और किसीने ईश्वराधीन ही मान ली है। अस्तु, परन्तु जीव की अस्ति अवश्य स्वीकार की है द्वितीय प्रक्रियावाद है उसका मन्तव्य है कि-जीव की अस्ति नहीं है जव जीव की ही अस्ति नहीं है तो फिर क्रिया की अस्ति उस के मत में किस प्रकार हो सक्ती है अतएव यह अक्रियावाद नास्तिकवाद है अर्थात् इसका दूसरानाम नास्तिकवाद भी है तृतीय अज्ञान वादी है वह इस प्रकार से अपने मत का वर्णन कररहा है किआत्मा में अज्ञानता ही श्रेयस्कर है क्योंकि-यावन्मात्र जगत् में सक्लेश उत्पन्न