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( ८४ ) प्टिकरणाय वीरविभु. पूजित इत्यर्थ
अर्थ-इस प्रकार नयों के अर्थों के कुसुमों के वृन्द से जिनेन्दु अर्थात जिनचन्द्र श्री महावीर स्वामी विनय के साथ और विनीतभाव से विनयविजय नामक आचार्य द्वारा अर्चित किया गया है जो श्रीभगवान् श्राध्यात्मिक लक्ष्मी संयुक्त हैं तथा समुद्र के तटवर्ती श्री द्वीपाख्य नामक प्रधान नगर में इस स्तवन की रचना की गई है श्री विजयदेवसूरि के जो विजयसिंह नामक शिष्य हैं वह मेरे सद्गुरु हैं उन की संतुष्टि के लिये श्री वीरप्रभु की अर्चना की गई है अर्थात् अपने सद्गुरु की कृपासे सातों नयों के पवित्र वचन रूपी पुप्पों से श्रीभगवान् महावीर स्वामी की अत्यन्त विनीतभावसे विनयविजय आचार्यद्वारा पूजा कीगई है सो इस प्रकार की अर्चना की कृति का करना यह सव महाराज की कृपा का ही फल है,।
वृद्धिविजयशिष्येण गम्भीरविजयेन च
टीका कृतेयं कृतिर्मिवाच्यमानाऽस्तु शंकरी ॥१॥ _वृद्धि विजय के शिष्य ने तथा गंभीरविजयने यह टीका निर्माण की है जो पढ़ने वालों के लिये सुख करने वाली हो "इति नयकर्णिका समाप्ता' इस प्रकार से समाप्त की गई है।
३० पाहणा कुशल--अन्य आत्माओं को धर्मशिक्षाएँ ग्रहण कराने में समर्थ होना चाहिए यद्यपि वहुत आत्माएँ स्वयं शिक्षाओं द्वारा अपना कल्याण कर सकती हैं परन्तु अपने से भिन्न अन्य आत्माओं को धर्म पथ में आरूढ़ कराना एक अनुपम शक्तिसपन्न श्रात्मा का गुण है क्योंकि यावत् काल उसका स्वआत्मा उस विषय पर आरूढ़ नहीं हो जाता तावत्काल पर्यन्त वह अन्य आत्माओं को शिक्षा देने में समर्थ नहीं हो सकता तथा यदि स्वयं किसी धार्मिक क्रिया को द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के न मिलने से ग्रहण करने में शक्ति संपन्न न होसके तो फिर अन्य आत्माओं को तो अवश्यमेव धार्मिक क्रियाओं में प्रारूढ़ कराने में सामर्थ्य होना चाहिए अतएव प्राचार्य का ३० वां गुण इसी वास्ते प्रतिपादन किया गया है कि वह धर्म पथ का नेता है उसमें उक्त गुण अवश्यमेव होना चाहिए।
३१ स्वसमयवित्-जैनमत के सिद्धान्तों में निपुण होना चाहिए जो स्वमत के सिद्धान्तों से ही अपरिचित है वह उसमत का प्रचारक किस प्रकार बनसकता है अथवा जव उस को अपने सिद्धान्त का ही कुछ पता नहीं तव वह उस मत की प्रभावना किस प्रकार कर सकता है अतएव स्वमत से परिचित होना चाहिए तथा यावन्मात्र पदार्थ हैं उन को स्यावाद के द्वारा प्रतिपादन करना चाहिए-जैसे कि-अपने गुण की अपेक्षा सर्वपदार्थ सत्प