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उनको यह उल्लास जिन भ्रम-विवरों में लिये घूमता रहा, यह उनकी तपस्या की एक कहानी है। __ प्रथम तो ब्रजभाषा की ऐसी रचनाओं की खोज करना ही एक दुष्कर कार्य था क्योंकि इस सामग्री का प्रभूतांश अप्रकाशित था। फिर उनके सम्मुख यह समस्या भी उपस्थित हुई कि अमुक कृति शुद्ध ब्रजभाषा की है या मिश्र; और साथ ही अनेक कृतियों के प्रबन्धत्व की परीक्षा भी उनकी अपनी परीक्षा थी। इसी प्रकार अध्ययन के क्षेत्र में अनेक स्थलों पर वर्गीकरण और अनेक तत्त्वों की गवेषणा की समस्या भी उनके लिए कम महत्त्वपूर्ण नहीं थी। ___डॉ० जैन की प्रस्तुत शोधकृति उनकी तपस्या की सिद्धि है । प्रत्यक्षतः अग्नि और स्वर्ण का कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्त स्वर्णकार की योजना के अन्तर्गत अग्नि में तपाया हुआ सोना समुचित समताप के पश्चात् कंचन बन जाता है। स्वर्णकार तो स्वर्ण को यक्तियुक्त और व्यवस्थित ढंग से अग्नि में देता है, किन्तु स्वर्ण की दशा क्या होती है, यह इन शब्दों से स्पष्ट है :
स्वर्णकार ने स्वर्ण जब, दियौ अग्नि में डाल ।
काँप उठ्यौ पानी भयौ, देख परीक्षा काल ॥ डॉ. जैन की मैंने शोधकालीन अवस्था को देखा और आज मैं उनको हिन्दी के एक व्याख्याता के रूप में देख रहा हूँ, यह उनकी तपोनिष्ठा, साधना
और सारस्वत सेवा-भावना का परिणाम है। मैंने इस कार्य के निर्देशन में जो थोड़ी-बहुत भूमिका निभायी, शायद उसका भी कुछ परिणाम हो । मुझे प्रसन्नता है कि 'मेरा लाल' 'अपनी लाली' को प्रकीर्ण करने में मेरी रुचि के अनुरूप प्रवृत्त है। मेरी शुभ कामना है कि यह लाली दिन-दूनी रात चौगुनी हो ।
१० जनवरी १६७६ ई०
डॉ० सरनामसिंह शर्मा 'अरुण'
एम.ए., पीएच. डी., डी. लिट.
आचार्य, हिन्दी-विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ।