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________________ युग-मीमांसा भक्तिकाव्य-धारा परम्परा से प्राप्त भक्तिकाव्य-धारा इस युग में आकर तिरोहित नहीं हो गई, वह सतत प्रवाहित होती रही,' यद्यपि उसका रूप कुछ क्षीण और परिवर्तित अवश्य हो गया था। उसमें विलास और श्रृंगार की झलक भी दिखलाई देने लगी थी। उसका साहित्यिक सौन्दर्य भी मध्यकाल के पूर्वार्द्ध के समान सद्य और रम्य न था। फिर भी प्रचुर परिमाण में अनेक भक्त कवियों ने भक्तिकाव्य की सृष्टि की थी । अनेक दृष्टियों से इस काव्य का भी विशद महत्त्व है। राधा और कृष्ण, सीता और राम, पार्वती और शिव की भक्ति से सम्बद्ध अनेक भक्ति-रचनाओं का प्रणयन हुआ । भक्ति-भाव से प्रेरित होकर अनेक जैन भक्त कवियों ने भी मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में विपुल परिमाण में काव्य का सृजन किया। अनेक भक्तों-प्रह्लाद, ध्रुव, भरथरी, नरसी मेहता, श्रेणिक आदि को आधार मानकर भक्तिपरक काव्य रचा गया । इस काल के सम्पूर्ण भक्तिकाव्य को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह विलास और शृंगार की भावना से गुम्फित है, प्रत्युत उसमें उदात्त भक्ति और सहज माधुर्य भी छलका पड़ता है । साहित्यिक प्रवृत्तियों का जन्म मरण जीव के जन्म-मरण की तरह आकस्मिक नहीं होता; किसी विशेष दिन, तिथि अथवा वर्ष को भी वे समाप्त नहीं हो जातीं । हाँ, उनमें कतिपय कारणों से पृथुलता अथवा क्षीणता देखी जा सकती है । क्षीणता से ही उनके लोप का भ्रम होता है। भक्ति का जो उन्मेष मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में हुआ था, उसका प्रभाव उत्तरार्द्ध में भी नि:शेष नहीं हुआ था। -डॉ० सियाराम तिवारी : हिन्दी के मध्यकालीन खण्डकाव्य, पृष्ठ ५६ । २. विशेष के लिए द्रष्टव्य (क) डॉ० प्रेमसागर जैन : हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि । (ख) प्रो० राजकुमार साहित्याचार्य : अध्यात्म पदावली।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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