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________________ भाषा-शैली ३२५ पच्चीसी', 'श्रीणिक चरित' 'नेमिनाथ मंगल' 'नेमीश्वर रास' आदि । अन्य प्रबन्धकाव्यों में भी इस शैली का प्रयोग हुआ है । कुछ विशेष प्रसंगों के अतिरिक्त प्रायः स्तुतिपरक स्थलों पर तो इस शैली का अधिकांशतः आश्रय लिया गया है। इस शैली के अन्तर्गत रसोद्रेक, भाव की तलस्पर्शिता एवं अतिशय सरसता का संचार है : अरी ऋतु बसंत की आई हाँ ! अरी फूल रही बनराई हाँ ! अरी सब षेले फागुन होरी हाँ ! अरी सतभामा रुकमनि गोरी हाँ ! कुछेक स्थलों पर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो इस शैली के निकट हैं, जैसे : कितीक तिया उमंग तें, सुगन्ध लेप अंग ते, चली सषीन संग तें, प्रमोद कौं बढ़ाय के। कितीक नारि गावती, सषीन कौं बुलावती, प्रसून कौं सुघावती, सु प्रीति की उपाय के ॥' सटेक गीत शैली गीत शैली की भाँति सटेक गीत शैली की भी प्रमुख विशेषता उसकी संगीतात्मकता अर्थात् गेयता है । इस शैली में कहीं शास्त्रीय संगीत और कहीं देशी संगीत गूज रहा है । यहाँ राग और ताल के विधान में छन्दविधान भी सजग हो उठा है । इसमें राग-रागिनियों की गेयता के अनुरूप एक विशेष क्रम में 'टेक' की योजना बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत शैली बहुत थोड़े प्रबन्धकाव्यों में प्रयुक्त हुई है और वह भी बहुत थोड़े स्थलों पर। केवल 'नेमीश्वर रास' ही एक ऐसा काव्य है, जिसमें आदि से अन्त तक इस शैली का प्रयोग हुआ है। वहाँ 'रास भणों १. वर्द्धमान पुराण, पद्य १६६, पृष्ठ १६६ । नेमिनाथ मंगल, पृष्ठ २ । ३. जीवन्धर चरित (नथमल बिलाला), पद्य ६३, पृष्ठ ११० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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