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________________ भाषा-शैली २८५ व्यंजक, संयुक्ताक्षरों, का बहुलता से प्रयोग उपलब्ध होता है । उद्धरण देखिए : दंती सों दंती जु जुद्ध करते भये । धरत गर्व मन मांहि सुभट तिन पे ठये ॥ अंजन गिरिसम तुंग अधिक छवि साजई । करत महा चिंघार किधों धन गाजई ॥ इसमें ओजगुण के अनुकूल चित्तवृत्ति को प्रदीप्त करने वाला शब्दसमूह व्यवहृत हुआ है । दंती, जुद्ध, ठये, तुंग, चिंधार शब्द कर्णकटू लगते हैं। भयानक रस वीर रस का साथी बनकर ओज गुण में अभिव्यक्त हो रहा है। इसी प्रकार : आ षड़े पड़े धड़हड़े जेम । भै उपज जाण नहीं षेम ॥ ___ इस स्थल पर प्रयुक्त परुष वर्ण ओज गुण के सहायक बनकर आये हैं। 'षड़े पड़े धड़हडै' की कठोर ध्वनि विचारणीय है। शब्द-शक्तियां 'शब्द की शक्ति उसके अन्तर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार है । ........ अर्थ का बोध कराने में शब्द कारण है और अर्थ का बोध कराने वाले व्यापार अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना हैं ।'३ अभिधा यही शब्द की प्रथम और मूलभूत शक्ति है। यही शक्ति मुख्यार्थ का बोध कराती है। जीवन के अधिकांश कार्य-व्यापार अभिधा-शक्ति द्वारा ही सम्पा १. जीवंधर चरित (नथमल बिलाला), पद्य ९८, पृष्ठ १०० । २. सीता चरित, पद्य १७४१, पृष्ठ ६७ । .. ३. हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, पृष्ठ ८२३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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