SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन इसी प्रकार 'मधुबिन्दुक-चौपई' का एक स्थल बड़ा मर्मस्पर्शी है। वह भयानक रस का एक सजीव और संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत करता है : पर्यो कूप मधि यह विचार । गज पकरै तो डारे मार ॥ कूप मध्य बड़ ऊग्यौ एक । ताकी शाखा फली अनेक ॥ तामहिं मधुमच्छिन को थान । छत्ता एक लग्यौ पहचान ।। वर की जटा लटकि तह रही । कूप मध्य गिरते कर गही ॥ दोउ कर पकर रह्यो तिहं जोर । नीचें देख दृष्टि मरोर ।। कूप मध्य अजगर विकराल । मुंह फारे बैठ्यो जिम काल ॥ वह निरखहि आवै मुख मांहि । तो फिर भाजि कहां लौं जाहिं ॥ चार कौन में नाग जु चार । बैठे तहां तेहु मुख फार ॥ कब यह नर गिर है इह ठोर । गिरतें याको कीजै कौर ॥ नीचे पंच सर्प लखि डर्यो । तब ऊपर को मस्तक करयो । देख वटकी जट वह दोय । अंदर जुग काटत है सोय ॥ कूप कंठ गज सुड प्रकार । झकझोरै वर की बहु डार ॥' यहाँ भयानक रस की सफल व्यंजना है। यह चित्र अपनी तीव्र और सशक्त अभिव्यक्ति के कारण भयानक रस का चमत्कारपूर्ण दिग्दर्शन कराने में विशेषतः सक्षम है । इसमें रस के पूर्ण अवयव वर्तमान हैं। संकटग्रस्त पुरुष आश्रय है । सांय-साँय करता हुआ वन-प्रदेश, वन-कूप की भयंकरता, मदमस्त गज, मधुमक्खियों का छत्ता, विकराल अजगर, नाग, अवलम्बित वटजटा को चूहों द्वारा काटा जाना, गज द्वारा वटवृक्ष की डालियों को झकझोरना आदि विभाव हैं। वैवर्ण्य, कम्प, रोमांच, अधीरता, किंकर्तव्यविमूढ़ता आदि अनुभाव हैं । त्रास, चिन्ता, दैन्य, आवेग आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे स्थायी भाव भय परिपोषित होकर भयानक रस की निष्पत्ति कर रहा है। 'सीताचरित' में इस रस का एक चित्र अतीव तलस्पर्शी है । असहाय .. मधुबिन्दुक चौपई, पद्य १४ से २०, पृष्ठ १३६ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy