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रस-योजना
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चरित" 'शील कथा" आदि में भयानक रस के अनेक स्थल मिलते हैं । इन स्थलों पर विवेच्य रस की विविध भूमियों का विधान दृष्टिगोचर होता है ।
'शीलकथा' से उद्धृत प्रस्तुत उद्धरण में भयानक रस का स्रोत ही फूट पड़ा है :
दीखे कोय ॥
तहां तो वृक्ष सघन अति होय । हाथों हाथ न कहूँ सिंहगन करत डकार | कहूं नाग फुंकरत अपार ॥ रोज रीछ दल फिरते घने । ताकौं भय जो कहत न बने ॥ गुफा कहीं पाताल मझार । कहूँ गिर ऊँचे अति अधिकार ॥ ऐसे वन में बैठी सोय । छिन इक धीर धरै नहि कोय ॥
आश्रयविहीना मनोरमा का प्रसंग है । अरण्य- प्रदेश की निर्जनता और विकरालता, सघन वृक्ष- जन्य अंधकार, सिंह-गर्जन, नाग-फुंकार, रोजछल का घूमना, पाताल सदृश गुफाएँ, ऊँचे-ऊँचे पर्वत आदि विभाव हैं । कंप, रोमांच, रोदन आदि अनुभाव हैं और त्रास, संकट, चिन्ता आदि संचारी भाव हैं ।
१. (क) सीता चरित, पद्य ६६८ से ६७४, पृष्ठ ५३ ।
(ख) इह मोकौं मारं तहकीक । इह रावण भेज्यो है ठीक ॥
rict बहुत धूणी छूटी। जैसे पवन डार ज्यौं लूटी ॥
३.
वही, पद्य ११०८, पृष्ठ ६० ।
(क) शीलकथा, पृष्ठ १६-१७ । (ख) सुन्दरि ने जानी जबै आवत राजकुमार । शीलभंग के करन को, निश्चय जानी नार ॥ थरहर कांपी सुन्दरी, वदनु गयौ कुम्हलाय | दीन मृगी की भांति वह, मन में अति दहलाय || जैसे थोड़े जलविषै, तलफत मीन अपार । तैसे तलफत सुन्दरी, तिहि रनवास मझार ॥
वही, पृष्ठ ३६-३७।
वही, पृष्ठ ३६ ।