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________________ प्रबन्धत्व और कथानक - स्रोत १५७ चित अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग, विजयोल्लास आदि से सम्बद्ध अनेक दृश्यों को ठीक विधि से निरूपित किया गया है । " 'शीलकथा' के अधिकांश वर्णन संक्षिप्त और चलते हुए हैं । उनमें कवि की दृष्टि संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत करने में असमर्थ रही है । फिर भी कतिपय दृश्य चित्रात्मक हैं : अति विकट अरण्य मंझार | बैठी कोमल अंग सुनार 1 हां तो वृक्ष सघन अति होय । हाथों हाथ न दीखे कोय ॥ कहीं सिंहगन करत डकार । कहूं नाग फुंकरत अपार । रोज रीछ दल फिरते घने । ताको भय जो कहत न बने ॥ गुफा कहीं पातालमंझार । कहूं गिर ऊंचे अति अधिकार । 'नेमिनाथ मंगल' काव्य में वर्णनों का प्राचुर्य है । ये वर्णन कोरे वर्णन नहीं हैं । इन वर्णनों में लोक तत्त्व अपने पूरे सौन्दर्य के साथ उभर कर आया है | हमारा हृदय इनमें रमता है और मुग्ध हो उठता है । विवाहविषयक कतिपय चित्र प्रस्तुत हैं : १. हां । अरी फूलन की पारि झारी हां ॥ अरी मषमल के जीन बनाये हां । अरी कुंदन सो जरित जराये हां ॥ (क) अरी अब घोरे सरस बनाये (क) चेतन कर्म चरित्र, पद्य ४२, पृष्ठ ५६ । (ख) वही, पद्य १६५, पृष्ठ ७१ । (ग) वही, पद्य १६८-६६, पृष्ठ ७२ । २. भ्रमतो भ्रमतो वह आयो । सब कौशल देश मंझायो || नगरी विजयंती मांही। आयो ततछिन सो तहांही ॥ तह देखि नगर सुखकारी । मनो स्वर्गपुरी अवतारी ॥ eg मानिक मोती झलकें । कहुँ मोतिन झालर झलकें ॥ वही, पृष्ठ ३६-३७ 1 - शीलकथा, पृष्ठ ७ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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