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________________ ११० जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन (४) सभी में प्रसंगानुकूल अनेक भाव-रसों की सृष्टि हुई है; किन्तु प्रधान स्वर शान्त रस (निर्वेद) का है। उनका पर्यवसान शान्त रस में ही हुआ है। (५) प्रत्येक में भोग की विरसता, संसार की असारता, जीवन की क्षणभंगुरता के साथ ही साथ पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक का प्रसंगानुसार विवेचन है। पाप पर पुण्य की, अधर्म पर धर्म की और हिंसा पर अहिंसा की सर्वत्र विजय दिखायी गई है। (६) उनमें अधिकांश पात्रों का शील-विवेचन प्रायः एक ही पद्धति पर हुआ है । उन्हें गृहस्थ त्याग के उपरान्त ही जैन धर्म में दीक्षित होते हए, कठोर तप करते हुए और अविचल भाव से अनेकशः विघ्न-बाधाओं को सहते हुए तथा मृत्यु-उपरान्त स्वर्ग या मोक्ष सुख प्राप्त करते हुए चित्रित किया गया है । (७) उनमें अनेक स्थलों पर अलौकिक, अति प्राकृत एवं अति मानवीय घटनाओं की अवतारणा हुई है। (८) उनकी मूल कथावस्तु के अन्तर्गत प्रासंगिक कथाओं के साथ ही माथ कुछ ऐसी घटनाओं, अन्तर्कथाओं को भी नियोजित किया गया है, जो असम्पृक्त एवं अप्रासंगिक-सी लगती हैं; किन्तु उनका महत्त्व इसलिए स्वीकार किया जाता है क्योंकि वे मानव को असत् से सत् की ओर प्रेरित करती हैं । (8) कथा के मध्य स्थल-स्थल पर छोटे-छोटे अनेकशः नीति एवं उप देशपरक स्थलों की सृष्टि हुई है। दार्शनिक या आध्यात्मिक इस वर्ग के अन्तर्गत उन प्रबन्धकाव्यों को लिया गया है, जिनका प्रणयन दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक पृष्ठ-भूमि पर हुआ है । हमारे अनेक कवियों ने आत्मिक सत्य (आत्म-दर्शन) को साहित्य का दर्शन स्वीकार किया है । अत: उनके काव्यों में जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा,
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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