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कविवर बनारसीदास
__ मन एक क्षण में ज्ञानवान और क्षण भर में ही माया से मलिन हो जाता है। वह क्षण भर में ही कभी तो दीन और कभी क्षण भर में ही इन्द्र जैसा वैभवशाली बन जाता है।
एक क्षण में ही अनन्त रूप धारण करता है।
और क्षण भर में ही सारे संसार में चक्कर लगा आता है मथानी के दही की तरह सदा ही उछलता रहता है।
नट की थाली, रहेंट की घडियें, नदी के भौंर और कुम्हार के चक्र की तरह यह मन निरंतर ही भटकता रहता है यह आज स्थिर कैसे हो सकता है यह तो प्रारम्भ से ही चंचल और अनादि काल का ही कुटिल है। चौदह रत्नों की कल्पना
आप क्या चौदह रनों को प्राप्त करना चाहते हैं। अच्छा तव प्राप्त कीजिए वह कहाँ है इसका वर्णन सुनिए।
लक्ष्मी सुबुद्धि, अनुभूति कौस्तुभ मणि,
वैराग्य कल्पवृक्ष शंख सुवचन है। ऐरावत उद्यम, प्रतीति रंभा उदै विप,
कामधेनु निर्जरा सुधा प्रमोद धन है । ध्यान चाप प्रेम रीति मदिरा विवेक वैद्य,
शुच भाव चन्द्रमा तुरंग रूप मन है । चौदह रतन ये प्रगट होंय जहाँ तहाँ,
ज्ञान के उद्योत घट सिंधु को मथन है।