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कविवर बनारसीदास
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ANNOURNAL
एक आत्मा की अनेकता
। आत्मा में कर्म के संबंध से किस प्रकार अनेक तरह के भाव उत्पन्न होते हैं इसका तुलनात्मक वर्णन सुनिए। जैसे महीमंडल में नदी को प्रवाह एक,
ताही में अनेक भांति नीर की दरनि है। पाथर के जोर तहां धारकी मरोर होत,
कांकर की खानि तहाँ झागकी झरनि है। पौन की झकोर तहाँ चंचल तरंग उठे,
भूमि की निचानि तहाँ भौंर की परनि है। तैसो एक आत्मा अनंत रस पुद्गल,
दोह के संयोग में विभावकी भरनि है॥ जिस तरह पृथ्वी पर नदी का प्रवाह तो एक ही परन्तु उसमें अनेक तरह से पानी का बहाव होता है।
जहाँ पत्थरों का जोर होता है वहाँ धार में मरोड़ होती है, जहाँ कंकड़ होते हैं वहाँ भाग पड़ते हैं, जहाँ हवा का जोर पड़ता है वहाँ चंचल तरंगे उठती हैं और जहाँ जमीन नीची होती है वहाँ भौंर पड़ता है। इसी तरह एक आत्मा में पुद्गल के अनंत रसों के कारण अनेक प्रकार के विभाव उत्पन्न होते हैं। ईश्वर कहाँ है
ईश्वर की प्राप्ति के लिये संसारी मनुष्य इधर उधर भटकते रहते हैं उनके लिये कविवर ईश्वर का स्थान बतलाते हैं। वड़ा सुन्दर वर्णन है।