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कविवर बनारसीदास
ग्रन्थ में न ज्ञान नहीं ज्ञान कवि चातुरी में, वातनि में ज्ञान नहीं ज्ञान कहा बानी तातै भेष गुरुता कवित्त ग्रन्थ मंत्र बात,
इन्तै अतीत ज्ञान चेतना निशानी है । ज्ञान ही में ज्ञान नहीं ज्ञान और ठौर कहीं,
जाके घट ज्ञान सोही ज्ञान को निदानी है ।
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अरे भाई ! न तो अनेक तरह के भेषों में ज्ञान है न गुरुपनें में ज्ञान है, और न यंत्र, मंत्र तंत्र में ही ज्ञान की कथा है ।
ग्रन्थों में भी ज्ञान नहीं है, न काव्य की चतुरता में ज्ञान है और न बातों में ही कहीं ज्ञान रक्खा है ।
भेप, गुरुता, यंत्र, मंत्र, ग्रन्थ और काव्यकला से अलग ज्ञान को तो चेतना ही निशानी है ।
ज्ञान में भी ज्ञान नहीं है और न ज्ञान किसी दूसरी जगह है जिसके घट में आत्म ज्ञान है बस वही ज्ञान का स्वामी है । कविवर ने निश्चय नय ही अपेक्षा से आत्म ज्ञान का वर्णन किया है । वास्तव में ज्ञान तो अपने आत्मा में ही है उसे सच्चा आत्म शृद्धानी स्वयं ही प्राप्त करता है ।
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ज्ञानी विश्वनाथ
आत्म ज्ञानी ही विश्वनाथ है । कैसे है । सुनिए । भेद: ज्ञान आरा सों दुफारा करे ज्ञानी 'जीव,
आतम करम धारा भिन्न भिन्न चरचे |
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