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कविवर बनारसीदास
सत्य सिद्धान्त को स्वीकार किया कि केवल कोरी क्रियाएँ
आडवर हैं और केवल ज्ञानमात्र ही वाद विवाद का विषय है किन्तु जीवन सुधार के लिए दोनों के संयोग की आवश्यकता है
और अन्त में उन्होंने दोनों को ग्रहण किया। हमारा कर्तव्य है कि हम भी किसी भी सिद्धान्त का भली प्रकार मनन करें उसकी तह में प्रवेश करने का प्रयत्न करें और तब उसे ग्रहण करें इसके बाद भी यदि हमें उसकी असत्यता प्रतीत हो तो हम उसे परिवर्तित करने में किसी प्रकार का संकोच न करें।
कविवर के जीवन चरित्र को समाप्त करते हुए हम भावना करते हैं कि हमारी समाज में पुनः ऐसे उत्कृष्ट कवियों का जन्म हो और वे अपने अमर काव्य द्वारा संसार को जीवन प्रदान करें। कविवर बनारसीदास का काव्य प्रेम
कविवर को जीवन से ही काव्यप्रेम था। यौवन की उन्मत्तता के समय श्रृंगार रसकी रचनाओं से लेकर अन्त समय तक वे अनुपम आध्यात्मिक रस की तरंगों में डूबे रहे हैं। . उनमें स्वाभाविक काव्य प्रतिभा थी उनका हृदय सरसता और सहृदयता से परिपूर्ण था। काव्य को उन्होंने अपना जीवन साथी बनाया था। प्रतिकूल अथवा अनुकूल परिस्थितियों में काव्य छाया के समान उनके साथ रहा है। दुःख और विपदाओं के समय काव्य के द्वारा उन्हें सहानुभूति और सान्त्वना प्राप्त हुई है विलास के समय वह उनकी वासनाओं का उद्दीपक रहा है। पत्नी तथा पुत्र के दारुण वियोग के समय वह वेदान्त के रूप में प्रकट हुआ है और अन्त में आत्म परिचय और आध्यात्मिकता में विलीन हो गया है। कवि की भावनाएँ जिस ओर आकर्पित हुई हैं काव्य की धारा उसी ओर स्वतंत्र रूप से प्रवाहित हुई है।