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कविवर बनारसीदास
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ommmmmmmmmmmmmm हृदय की कठोर परीक्षा करने को तुला था। संवत् ९६ में कविवर के नत्रों का तारा उक्त प्यारा एक मात्र पुत्र भी पिता के हृदय पर घनाघात करता हुआ चला गया। अबकी बार कविवर का हृदय टुकड़े टुकड़े हो गया उन्हें यह संसार भयानक प्रतीत होने लगा। उनकं हृदय से भयानक दुःख के उद्गार निकल पर।
नी बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोय । ज्यों तरुवर पतझार ह, रहे टूठ से दोय ॥ वे अपने मन को सान्त्वना देते हुए विचार करने लगे। तत्व दृष्टि जो देखिए, सत्यारथ की भांति । ज्यों जाको परिग्रह घट, त्यों ताको उपशांति ।।
संसार के कष्टों से त्रसित हुए हृदय को शांति प्रदान करने के लिए इसके अतरिक्त उनके पास कोई उपाय नहीं था। वे दुःख के समय में अध्यात्मिकता की ही शरण लेते थे वहीं उन्हें संतोप भी प्राप्त होता था। उस समय की परिस्थिति
उस समय राज्य की कैसी व्यवस्था थी, हाकिम लोग प्रजा पर किस प्रकार मनमानी करते थे इसका थोड़ा सा चित्रण कविवर ने अपने जीवन चरित्र में किया है।
संवत १६५४ में जौनपुर में कुलीचखां नामक एक हाकिम नियुक्त हुआ था उसने नगर के संपूर्ण जौहरियों को पकड़ बुलाया और उनसे एक बड़े भारी हीरे की याचना की। दुर्भाग्य से उनके