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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
पति भक्ति थी । पति की साधारण स्थिति होने पर आभूपरण आदि के अभाव में हो केवलमात्र पति को सुखी देखकर ही उन्हें सुख था । वह सच्ची अर्द्धांगिनी थी। पति को दुखित देखकर उनका हृदय दुःख से कातर हो उठता था पति के कष्ट को शक्ति भर नष्ट करना वे अपना कर्तव्य समझती थीं और जब तक वे उनकी चिंता और दुख को दूर हुआ नहीं देखतीं तब तक उन्हें संतोष नहीं होता था ।
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एक समय अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अनेक प्रकार के कष्टों को सहते हुए भी जब कविवर को कुछ भी लाभ नहीं हुआ यहाँ तक कि पिता की दी हुई सारी संपति वे गँवा बैठे तब घूमते हुए वे अपने श्वसुरालय की ओर निकल पड़े । वसुर ने देखते ही उनका प्रेम और सम्मान सहित स्वागत किया ।
रात्रि का समय हुआ पत्नी ने अधिक समय के बिछुड़े हुए पति को प्राप्त किया। अधिक समय के वियोग के पश्चात् का दंपति का यह मिलन अत्यंत आनंदप्रद था । कुछ समय तक तो एक दूसरे को देखकर युगल दंपति चित्र लिखित से रह गए। दोनों में से किसी का भी साहस आगे बढ़ने का न हुआ । अंत में पत्नी ने पति के चरणों पर गिरकर मूक स्वर से उनका आह्वान किया। पति का हृदय अविरल प्रेम धारा से परिपूर्ण हो गया । पत्नी को हृदय से लगाकर प्रेम दृष्टि से अवलोकन कर उसे संतोषित किया। इसके पश्चात् दोनों का परस्पर वार्तालाप हुआ। इतने समय में बीती हुई सुख दुख की अनेक बातें हुई । कविवर अपनी प्रियतमा पर अपनी व्यापारिक असफलताएं प्रगट नहीं होने देना चाहते थे अस्तु वे लंबी चौड़ी बातें बनाकर अपनी व्यापार संबंधी सफलता का वर्णन करने लगे किन्तु
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