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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
उन्होंने कई स्थानों पर जाकर जवाहरात दिखलाए परन्तु कहीं पर भी उनकी ठीक व्यवस्था नहीं हो सकी अन्त में वे किसी भी प्रकार माल को बेचने के लिए अपने स्थान से निश्चित विचार करके चल दिये। उन्होंने एक स्थान पर कुछ जवाहरात बाँध लिये थे; जब वे उन्हें दिखाने बैठे तब उन्हें मालूम हुआ कि वे कहीं खिसक कर गिर गए हैं। उन्होंने एक कपड़े में कुछ माणिक बांधकर रहने के स्थान पर कहीं रख दिये थे उन्हें कपड़े समेत चूहे न मालूम कहाँ ले गए। एक जड़ाऊ मुद्रिका उनको असावधानी से न मालूम कहाँ गिर गई। इन सभी आपत्तियों से उनका हृदय कंपित हो गया। उन्होंने दो जड़ाऊ पहुंची एक सेठ जी को बेची थी वे उसका रुपया लेने गए तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उस सेठ का आज दिवाला निकल गया है। इससे उनके हृदय पर बड़ी कठोर ठेस लगी वे हताश और कर्तव्य-विमूढ़ हो गए। प्रथम उद्योग में ही अचानक अनेक आपत्तियों के आक्रमण से वे अपने धैर्य को स्थिर नहीं रख सके। उनका स्वास्थ्य खराब हो गया और स्वास्थ्य लाभ की इच्छा से वे कुछ समय के लिए वहीं विश्राम करने लगे।
सब कुछ खो जाने के पश्चात् ७ माह तक वे आगरे ही रहे। इस समय उन्हें केवल मात्र व्यापार की ही चिन्ता थी। आगरे में उस समय एक अमरसी नामक वैश्य व्यापारी रहते थे उन्होंने बनारसीदास जी के उदार चरित्र और सच्चरित्रता को देखकर ५००) देकर अपने पुत्र के साथ साझे में व्यापार करा दिया । दोनों साझी माणिक, मणि मोती आदि खरीदने और बेचने लगे। इस प्रकार उन्होंने दो वर्ष तक कठिन परिश्रम से कार्य किया। किन्तु अन्त में हिसाब करने पर २००) रुपये का लाभ निकला.
और इतना ही उनके खाने पीने के खर्च में समाप्त हो गया।. .