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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
वालक की आयु जिस समय ७ माह की थी उसी समय ला० खरगसेनजी श्रीपार्श्वनाथजी के दर्शन के लिए वनारस गए
और पुत्र को भगवान के चरण में डाल कर उन्होंने प्रार्थना की। चिरंजीवि कीजे यह बाल, तुम शरणागति के रखपाल । इस बालक पर कीजे दया, अब यह दास तुम्हारा भया ।
उस समय मंदिर के पुजारी महोदय वहीं खड़े थे। उन्होंने कपट जाल रचना आरंभ किया। वे तुरंत ही मौनधारण करके पवन साधने का बहाना करके बैठ गए और कुछ समय बाद ढोंग खतम करके वोले-पार्श्वनाथजो के यक्ष ने प्रत्यक्ष होकर मुझसे यह कहा है, कि आपका यह बालक अवश्य ही दीर्घायु होगा। परंतु इसके लिए आपको इसका नाम परिवर्तन करना पड़ेगा। जो प्रभु पार्श्वजन्म का गांव, सो दीजे बालक का नाच । तो बालक चिरजीवी होय, यह कह लोप भयो सुरसोय ।
खरगसेनजो पुजारो के कपट जाल में फंस गए और उन्होंने पुत्र का नाम वनारसीदास रख दिया। यही बालक वनारसीदासजो इस जीवन चरित्र के नायक कविवर वनारसीदास थे।
__ वनारसीदासजी अपने पिता के एकमात्र पुत्र थे इसलिए उनका पालन-पोषण बड़े प्यार सहित हुआ। जब वे ७ वर्ष के हुए तव उनका विद्याध्ययन प्रारंभ हुआ। उस समय वहां पांडे रूपचन्दजी नामक एक विद्वान् रहते थे। वे अध्यात्म के ज्ञाता
और प्रसिद्ध कवि थे। आपके द्वारा रचा हुआ पंच कल्याणक पाठ वड़ा ही हृदयग्राही और सुन्दर काव्य है। इन्हीं के पास वालक , वनारसीदासजी ने पढ़ना प्रारंभ किया।