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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
हजी शं सोख लगी नथी कां तने,
नरक मां दुःख कहिवे को न रवै। श्राव्यो एक लो जाय पण एक तू,
एटला माटे को एटलं खेवै ॥ हे बेहोश जीव ! मैं तुझसे क्या कहूँ आज तू फिर वारबार विषय विप का सेवन करता है।
अरे! विषयों के फलों को चखकर तू अब तक तृप्त नहीं हुआ तू अपने लाभ की तरफ क्यों नज़र नहीं दौड़ाता है।
___ क्या तुझे अब तक शिक्षा नहीं लगी क्या तुझसे नरकों का दुख कहना अब भी वाकी रह गया है।
अरे भाई ! तू अकेला आया है और अकेला ही जायगा तू इन सब संसारी संबन्धियों के लिए क्यों इतना पाप कमा रहा है।
अन्योक्तियांहे चैतन्य हंस ! तुम किस तरह फंदे में फंस गए हो। हँसा हँस हँस आप तुझ, पूर्व सँवारे फंद।
तिहिं कुदाव में वंधि रहे, कैसे होहु सुछंद ॥ कैसे होहु सुछंद, चंद जिस राहु गरासै। .
तिमिर होय बल जोर, किरण की प्रभुता नासै॥ स्वपर भेद भासै न देह जड़, लखि तजि संसा। ___ तुम गुण पूरन परम, सहज अवलोकहु हंसा॥
. हे चैतन्य हँस, तुमने अपने लिए स्वयंही हँस हँसकर . . फंदा बनाया है आज तुम उसी फंदे में फंसे हुए हो अब तुम स्वतंत्र कैसे हो सकते हो।