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________________ भैया भगवतीदास १३१ , उनकी दृष्टि में तो मुक्ति के अतिरिक्त और ही कोई दुर्लभ पदार्थ समाया हुआ था। कविवर देव जी उस दुर्लभ पदार्थ की तारीफ करते हैं आप कहते हैं 'जोग हू तें कठिन संजोग परनारी को' परनारी के संयोग को आप योग से भी अधिक दुर्लभ बतलाते हैं आपकी दृष्टि में पत्नीव्रत और सचरित्रता का तो कोई मूल्य ही नहीं था। उस समय के भक्त कवियों ने भी श्रीकृष्ण और राधिका के पवित्र भक्तिमार्ग का आश्रय लेकर उनकी श्रीट में अपनी मनमानी वासनामय कल्पनाओं को उद्दीप्त किया था। वासनाओं और शृंगार में वे इतने ग्रस्त हो गये थे कि अपने उपास्य देवता को गुंडा और लंपट बनाने में भी उन्होंने किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। एक स्थान पर भक्तवर नेवाज कवि व्रज वनिताओं को नीति की शिक्षा देते हुए कहते हैं। 'बावरी जो पै कलङ्क लग्यो तो निसङ्क है काहे न अङ्क लगावति' कलङ्क धोने का कविवर ने यह बड़ा अच्छा उपाय बतलाया है। रसखान सरीखे भक्त कवि भी इस अनूठी भक्ति लीला से नहीं बचे हैं आप का क्या ही सुन्दर पश्चाताप है 'मो पछितावो यहै जु सखी कि कलङ्क लग्यो पर अङ्क न लागी । कृष्णजी की लीला का वर्णन करते हुए एक स्थान पर आप कहते हैं 'गाल गुलाल लगाइ, लगाइ कै अङ्क रिझाइ विदा कर दीनी'। इस तरह भारत की महान् आत्माओं के साथ भद्दा मजाक किया गया और उनके पवित्र चरित्र को वासनाओं के नाम चित्रों .से सजाकर सर्च साधारण जनता के साम्हने रखकर उन्हें धोके . में डाला गया और अपनी विषय वासनाओं की पूर्ति की गई।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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