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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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आत्म ज्ञानी की रीति ऋतु वरसात नदी नाले सर जोर चढ़े,
नाहिं मरजाद सागर के फैल की। नीर के प्रवाह तृण काठ वृन्द वहे जात,
चित्रा वेल आइ चदै नाहीं कहू गैलकी । वानारसीदास ऐसे पंचन के पर पंच,
रंचक न संक श्रावै वीर बुद्धि छैल की। कुछ न अनीत न क्यों प्रीति पर गुण सेती,
ऐसी रीति विपरीति अध्यातम शैल की।
वर्षा ऋतु में नदी नाले और तालाब बड़ी तेजी से चढ़ते हैं परन्तु सागर कभी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करता।
___जल के तेज़ प्रवाह में तृण और काठ का समूह बहता जाता है परन्तु चित्रा वेल उसके साथ मिलकर कभी भी गली-गली में कहीं नहीं फिरती है।
इसी तरह पांचों इन्द्रियों के प्रपंच में पड़कर आत्मज्ञानी. वीर विलासी की बुद्धि में थोड़ीसी भी विकृति नहीं पाती।
वह न तो कुछ अनीति करता है और न परगुणों ( कामक्रोध, माया, लोभ ) से प्रीति रखता है इस तरह अध्यात्म शिखर पर चढ़ने वाले ज्ञानी की रीति विपरीत ही होती है।
बिना अनुभव के लिखना पढ़ना सब वेकार है। लिखत पढ़त ठाम ठाम लोक लक्ष कोटि
ऐसो पाठ पढ़े कछू ज्ञानहू न वढ़िए । मिथ्यामती पचि पचिं शास्त्र के समूह पढ़े, __ पर न विकास भयो . भव दधि कदिए।