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कविवर बनारसीदास
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झुकाता है और जमीन पर पड़ी हुई डाल को ऊँचे उठाता है। जो मलिन होकर मुरझाते हैं उन्हें सहारा देकर उनका सुधार करता है । कूड़ा काँटे और सड़े पत्तों को चुनकर वाहिर फेंकता है छोटों को बढ़ाता है दो को अलग अलग करता है, बाढ़ को संभालता है। और फल चखता है।
उसी तरह चतुर राजा भी प्रजा रूपी बाग की माली की तरह रक्षा करता हुआ सुख संपत्ति को भोगता है।
नीचे लिखे छंद में मूर्ख पुरुषों का चित्र देखिए । ज्ञानवंत हठ गहै, निधन परिवार बढ़ावै। विधवा करै . गुमान, धनी सेवक द्वै धावै॥ वृद्ध न समझे धर्म, नारि भर्ता अपमान । पंडित क्रिया विहीन, राय दुर्वद्धि प्रमानै ॥ कुलवंतपुरुषकुलविधितजै, बंधु न माने बंधु हित । सन्यासधार धन संग्रहै, ते जग में मूरख विदित ॥
जो ज्ञानवान हठ करता है, निर्धन परिवार बढ़ाता है विधवा घमंड करती है, धनी होकर नौकर की तरह दौड़ता है, वृद्ध होकर धर्म नहीं समझता है। जो स्त्री अपने पति का अपमान करती है, जो विद्वान् योग्य क्रियाओं को नहीं करता है। जो राजा कुबुद्धि को धारण करता है, कुलीन पुरुष कुल की रीति को छोड़ता है, जो भाई, भाई के हित को नहीं समझता और जों सन्यास धारणकर धन संग्रह करता है चह संसार में महा मूर्ख है।