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वानरवंश की उत्पत्ति | १६ शिखर-कोई मुनि भी नहीं, फिर क्या कारण है ? तव तक मानो उसकी शक्ति चुक गई, वह स्खलित होकर नीचे आ पड़ा। सोचने लगा-'यह मैं कहाँ गिर गया ? कहाँ चला गया मेरा विद्यावल ?' तभी उसके मानस में आगम का अटल वाक्य उभरा-'मानुषोत्तर पर्वत का उल्लंघन मनुष्य नहीं कर सकते ।' पुन: विचारधारा उमड़ी'तो यह पुष्करवर द्वीप है और यह मानुषोत्तर पर्वत ।'
श्रीकण्ठ देव विमानों को जाते देख रहा था और चित्त में खेद कर रहा था-हाय ! मैं आज देव-दर्शनों से वंचित रह गया । मैं अल्प तपस्या वाला हूँ।
तपस्या शब्द मानस में आते ही श्रामणी दीक्षा लेने को दृढ संकल्प हृदय में जाग उठा। उसने प्रव्रज्या ली और कठोर तपश्चरण के फलस्वरूप सिद्ध गति पाई।
उसके बाद वज्रजंघ आदि अनेक राजा किष्किंधा नगरी के सिंहासन पर सुशोभित होते रहे । ___ तदनन्तर तीर्थकर मुनिसुव्रत प्रभु के शासन काल में घनोदधि नाम का राजा किष्किधा नरेश हुआ।
कीतिधवल के राक्षसवंश में भी कुल परम्परा से अनेक राजा हुए और घनोदधि का समकालीन लंकानरेश तडित्केश था। उनके पुत्रों किष्किधि (घनोदधि का पुत्र)-और सुकेश (तडित्केश का पुत्र) में भी कुल परम्परा से चली आई गहरी मित्रता थी।
-त्रिषष्टि शलाका ७/१