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४६४ | जैन कथामाला (राम-कथा) करने लगी । अहो ! मोह का कैसा जाल है कि मन्दोदरी को धर्म का उपदेश देने वाली महासती सीता आज स्वयं ही अपने स्वामी को धर्मच्युत करने के प्रयास में लीन हो गई। ___जव मुनि राम पर सीता के इन शब्दों का कोई प्रभाव न पड़ा तो अन्य देवियों और विद्याधर कुमारियों के साथ उसने नृत्य गान और संगीत छेड़ दिया। धुंघरुओं की छन-छन, वाद्यों की सुमधुर ध्वनि और कर्णप्रिय संगीत लहरी गूंजने लगी। आस-पास के पशुपक्षी भी मोहित हो गये । समूचा वातावरण शान्त और स्तब्ध था । दिव्य संगीत से सभी प्रभावित थे ।
किन्तु मुनि राम! वे तो शरीर से ही निस्पृह थे, आत्मध्यान में लीन ! उन पर क्या प्रभाव होता? ..
माघ मास की शुक्ला द्वादशी की रात्रि के तृतीय प्रहर में मुनि राम को केवलज्ञान हो गया । वे अव केवली राम हो गये। __ अच्युतेन्द्र (सीता के जीव) तथा अन्य इन्द्रों, देवों आदि ने उनका कैवल्योत्सव मनाया। राम ने सुवर्ण कमल पर विराजमान होकर धर्मदेशना दी। देशना के अन्त में अच्युतेन्द्र (सीतेन्द्र) ने अपने
अपराध की क्षमा मांगी और जिज्ञासा प्रगट को... -प्रभो ! लक्ष्मण और रावण किस गति में गये ?
-चौथी भूमि में। -रामर्षि का संक्षिप्त उत्तर था।
सीतेन्द्र को लक्ष्मण के चीथी भूमि में जाने की बात से धक्का सा — लगा। उसने पुन: प्रश्न किया। । -इसके बाद उनका क्या होगा? वे कभी मुक्त हो भी सकेंगे या नहीं........!
राषि कहने लगे__.. — इस समय शम्बूक, रावण और लक्ष्मण तीनों चौथी भूमि में हैं।