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वासुदेव की मृत्यु | ४८७: -तुम अयोध्या का सिंहासन संभालो । मैं प्रवजित होता हूँ।
-भैया ! मेरा हृदय भी संसार में नहीं लगता । यह भार. किसी और को दीजिए। ---शत्रुघ्न ने विनीत स्वर में प्रतिरोध किया।
मिलाओ।' लक्ष्मणजी उसे राम के पास ले पहुंचे। वातचीत करने से पहले उस तपस्वी ने शर्त तय की 'यदि मेरी और आपकी बातों को कोई दूसरा सुन लेगा अथवा कोई व्यक्ति वीच में आ जायेगा तो आप उसे मरवा डालेंगे।' राम ने शर्त स्वीकार की । लक्ष्मण को पहरेदार बनाकर कक्ष के बाहर खड़ा कर दिया और वार्तालाप में मग्न हो गये।
इतने में दुर्वासा ऋषि आ धमके और राम से भेंट करने की जिद करने लगे । लक्ष्मण ने कुछ देर प्रतीक्षा करने को कहा तो वे सम्पूर्ण नगरी और श्रीराम को शाप देने को तत्पर हो गये ।
निदान लक्ष्मण ने अन्दर जाकर राम को दुर्वासा के आने का समाचार सुना दिया। पहले आये हुए तपस्वी उठकर चले गये और कुछ समय बाद राम से सन्तुष्ट होकर दुर्वासा भी।
इसके पश्चात् राम खेदखिन्न हो गये। तव लक्ष्मण ने कहाभैया ! आप मुझे प्राण दण्ड देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिए । दुःखी क्यों होते हैं ?
वशिष्ठ आदि की सलाह से राम ने लक्ष्मण का त्याग कर दिया।
लक्ष्मण राजमहल से निकलकर सीधे सरयू तट तर पहुंचे। आचमन करके पाँचों इन्द्रियाँ अपने वश में करके प्राण वायु को स्थिर कर लिया ।
। इन्द्र आदि देवताओं ने उन पर पुष्प वृष्टि की। उनका शरीर - अदृश्य हो गया । देवराज इन्द्र लक्ष्मण (विष्णु के चतुर्थाश) को लेकर • स्वर्ग पधारे।
. [वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड (ग) हनुमानजी को वैदिक सनातन धर्म में सप्राण, सशरीर अमर