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४६० | जैन कथामाला (सम-कया)
राम की आना से चन्दन की लकड़ियों में आग लगा दी गई। अग्नि-स्फुलिंगों ने लपटों का रूप धारण कर लिया। विकराल ज्वालाओं को देखकर सभी के हृदय दुःख से भर गये । श्रीराम हृदय में विचारने लगे-'यह तो बड़ा विषम कार्य हुआ। अग्नि तो सर्व-भक्षी है। कौन वचा है इससे ? दावानल वन को जलाता है तो वड़वानल सागर के शीतल जल को । सीता तो नि:शंक इसमें कूद पड़ेगी। हाय ! मैं कैसा मन्दभागी हूँ। कभी प्रिया को सुख नहीं दे सका । पहले वन में निकाला तो अब अग्नि में झोंक दिया । देव की और दिव्य की अति विषम गति है। न जाने क्या होगा?'
तभी गर्त के पास आकर सीताजो ने उच्च स्वर से कहा
-हे लोकपालो ! सभी देवताओ ! चौंसठ प्रकार के इन्द्रो और सभी मानवो ! सुनो। यदि मैंने मन, वचन, काय से अपने पति श्रीराम के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को स्वप्न में भी चाहा हो, स्वेच्छा से अथवा वलात्कारपूर्वक किसी दूसरे पुरुष ने मेरा भोग किया हो तो यह अग्नि मुझे भस्म कर दे अन्यथा मेरे मन-वचन-काय की पवित्रता से शीतल जल हो जाय ।
और सती शिरोमणि ने छलांग लगा दी।
वैदिक परम्परानुसार यह अग्नि परीक्षा लंका के बाहर ही खुले मैदान में हुई थी और अग्निदेव ने अपनी साक्षी देकर सीता को शुद्ध प्रमाणित किया ।
[वा० रा० युद्ध काण्ड तथा तुलसीकृत दोहा, १०८-१०६] विशेष-तुलसीकृत में एक विशेष वात सीताजी के प्रति कही
जव श्रीराम खर-दूषण-त्रिशिरा को मारकर लौटे (वैदिक परम्परा के अनुसार राम ने ही खर-दूपण-त्रिशिरा का वध किया था) उस समय वे सीताजी से कहते हैं—'मैं अब नर-लीला करना चाहता हूँ। जव तक मैं राक्षसों का नाश कल तुम अग्नि में निवास करो।' श्रीराम की इच्छा