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________________ सपत्नियों का पड्यन्त्र | ४३७ से भयभीत होकर उन्होंने मेरा परित्याग कर दिया है कहीं मिथ्यादृष्टियों के बहकावे में आकर जिनधर्म को न छोड़ दें अन्यथा भव भ्रमण की सुदीर्घ परम्परा चलती ही रहेगी; कभी भी मुक्ति न हो सकेगी।' कहते-कहते सीता पुनः मूच्छित हो गई। कृतान्तवदन सोचने लगा-'धन्य है सती, अपने दुःखों की ओर ध्यान भी नहीं है, बस पति की चिन्ता में ही डूबी हुई है। पति को दु:ख न मिले, वे सभी प्रकार सुखी रहें। यही है सच्ची पति-भक्ति ।' सीता की मूर्छा टूटी तो कृतान्तवदन को देखकर बोली -जाओ भद्र ! तुम्हारा मार्ग सुखकर हो । सभी अयोध्यावासी सदा सुखी रहें। ___ सीता को प्रणाम करके कृतान्तवदन आँसू बहाता हुआ रथ में बैठकर वहाँ से चल दिया । सीता वहीं बैठी रह गई। -त्रिषष्टि शलाका ७९
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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