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४३६ [ जैन कथामाला (राम-कथा). ... सारथी के यह वचन सुनते ही सीता अचेत होकर गठरी की भाँति रथ में से लुढ़की और जमीन पर आ गिरी। कृतान्तवदन विलाप करने लगा। वन की शीतल हवा से सीता सचेत हुई और फिर अचेत . हो गई। यह क्रम कई बार चला।
इस प्रकार बहुत समय वीत गया । स्वस्थ होकर सीता ने पूछा-.. -भद्र ! अयोध्या यहाँ से कितनी दूर है ? -बहुत दूर ! किन्तु क्या लाभ होगा, यह जान कर ? -तुम तो वापिस जाओगे ही। ...
-जाना ही पड़ेगा, स्वामी की आज्ञा का पालन हो गया, यह सूचना देने। ...
- तो मेरा भी सन्देश दे देना। -वह क्या?
.... सीता ने कहा-जाकर स्वामी से कहना कि अपवाद था तो मेरी परीक्षा क्यों नहीं ली ? उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि मैं उनके . वियोग में कैसे जी सकूँगी ? . . . .
-हाँ माता ! इस हिंसक पशुओं से भरे वन में तो आप अपने .... पुण्य से ही जी सकेंगी अन्यथा मरण तो निश्चित है ही। .......... ..... -मर भी तो नहीं सकती, इस अपयश की गठरी को लादकर । ..
. कृतान्तवदन मुख देखता ही रह गया सीता का। वह क्या उत्तर देता ? सीता ही वोली... -मैं हतभागिनी तो अपने कर्मों का फल भोगूंगी ही। किन्तु 'तुम मेरा इतना सा सन्देश कह देना-'जिस प्रकार लोकापवाद .
इसी कारण सीताजी का परित्याग हुआ ।
..... [वाल्मीकि रामायण, उत्तर कान्ड] तुलसी के मानस में विश्वमोहिनी के कारण विष्णु को नारद का शाप नी या ।
..[तुलसी : मानस, बालकाण्ड] :