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. सपत्नियों का षड़यन्त्र | ४३१ प्रसन्नता के सागर में विघ्न-सा पड़ गया। सीता की दाईं। आंख फड़क उठी । राम वोले-दाहिनी आँख का फड़कना तो शुभसूचक नहीं है।
दु:खी स्वर में सीता कहने लगी'-क्या अब भी मेरा दुर्भाग्य शेष रह गया है ? अव और क्या दुःख देखना बाकी है ?
राम ने मधुर वचनों से आश्वस्त किया
-हृदयेश्वरी ! सुख और दुःख तो भाग्याधीन होते हैं; और भाग्य पूर्वकृत कर्मों का संचय ! आपत्ति और कष्ट में एक मात्र धर्म ही सहायक होता है । इसलिए धर्म में चित्त लगाओ। सीता अर्हन्त स्तुति और साधु-वन्दन आदि में लीन हो गई।
X विजय, सुरदेव, मधुमान, पिंगल, शूलधर, काश्यप, काल, क्षेम आदि राज्य के उच्चाधिकारी एक दिन राम के समक्ष आये। उनके शरीर वृक्ष-पत्रों की भाँति काँप रहे थे और आँखें भूमि पर लगी हई। कुछ कहना चाहते थे मगर होठ मानो चिपक गये थे।
राम ने उनकी.यह दशा देखी तो आश्वस्त करते हुए बोले-तुम लोगों को जो कुछ कहना हो, निर्भय होकर कहो। उनमें से एक अधिकारी विजय बोला-स्वामी ! न कहें तो कर्तव्यभ्रष्ट होते हैं और कहें तो........ -ऐसी क्या बात है ?
-वात ! काश कि हम राज्य-अधिकारी न होते । हम कुछ . कह नहीं सकते। आप हमें इस अधिकार के वन्धन ने मुक्त कर दीजिए।
-कर्तव्यभ्रष्ट होना चाहते हो तुम लोग ! स्पष्ट कहो। मेरी ओर से तुम्हें अभय है।