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सपत्नियों का षड़यन्त्र | ४२६ -देवी! आप लंका में इतने दिन रहीं। रावण के कारण आपको वड़े कष्ट भोगने पड़े। कैसी थी उसकी शक्ल-सूरत । चित्रपट पर बनाकर हमें भी तो दिखाइये।
-मैंने कभी उसका मुख देखा ही नहीं। -सीता ने सहज भाव से उत्तर दिया किन्तु रावण का नाम सुनते ही उनके शरीर में फुरफुरी दौड़ गई।
-आश्चर्य है, आपने उसका मुख ही नहीं देखा ? धन्य हैं आप! - आप जैसी सतियों से यह वसुन्धरा युग-युगों तक प्रेरणा लेती रहेगी। किन्तु देवी ! उसके किसी न किसी अंग पर तो दृष्टि पड़ी ही होगी। -सीता की चाटुकारिता करके सपत्नियाँ अपने मनोरथ पर: आ गईं।
-हाँ उसके पैर जरूर दिखाई पड़ गये थे। -सीता ने अनमने स्वर से उत्तर दिया।
तो पैरों का ही चित्र बना दीजिए। --संपत्नियों ने आग्रह किया।
--क्या होगा उसे बनाकर ? मुझे तो उसका नाम सुनते ही कैंप-कँपी आ जाती है । -सीता ने अपना पीछा छुड़ाना चाहा। ... किन्तु सपत्नियाँ ऐसे ही छोड़ देने वाली नहीं थीं। जब तक किसी का मनोरथ पूर्ण न हो जाय तव तक वह पीछा क्यों छोड़े ? सपत्नियों ने हठपूर्वक कहा
-तनिक देखने की इच्छा है । आप हमारी इतनी-सी भी इच्छा - पूरी नहीं करेगी। -और उन्होंने अपने मुंह लटका लिए।
सरल स्वभाव वाली सीता सपत्नियों को छोटी बहन ही समझती थी। उनकी उदासी वह देख न सकी। रावण के पैरों को चित्र- फलक पर उतारने का प्रयास करने लगी । उसे बहुत प्रयास करना