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४०८ | जैन कथामाला (राम-कथा) - ___ अन्यदा कुलंकर एक तापस के आश्रम को जा रहा था। मार्ग में सौभाग्य से अवधिज्ञानी मुनि अभिनन्दन के दर्शन हो गये। कुलंकर उनको नमन करके आगे जाने लगा तो मुनि ने एक जीव की प्राण-रक्षा के विचार से उससे कहा- "हे राजन् ! तुम जिस तापस के पास जा रहे हो वह पंचाग्नि तप तंपता है। वहाँ जलाने के लिए लाये हुए लठे में एक सर्प है। वह सर्प पूर्वभव में तुम्हारा पितामह क्षेमंकर था। इसलिए लट्ठे को सावधानी से चिरवाकर उसकी जीवन-रक्षा करना।"
मुनि के ये वचन सुनकर राजा कुलंकर व्याकुल हो गया। जितनी शोघ्र हो सका वह वहाँ पहुँचा और लट्ठा चिरवाकर सर्प की प्राण-रक्षा की। उसे श्रमण साधुओं पर प्रतीति हुई । उसके अन्तर्ह दय में भावना उठी-'अहो धन्य हैं, ये श्रमण साधु जिनका लौकिक व्यवहार ही परोपकार है।' ___ राजा कुलंकर के हृदय में वैराग्य भावना जाग्रत हुई। उसने व्रत ग्रहण करने का अपना विचार प्रगट किया तो पुरोहित श्रुतिरति ने रोड़ा अटकाया-'महाराज !. आपका यह विचार उचित नहीं है । प्रवज्या वृद्धावस्था में लेनी चाहिए। अभी से वैरागी होने से क्या लाभ ?
पुरोहित के इन वचनों से राजा का उत्साह भंग हो गया । 'मुझे क्या करना चाहिए'—यह सोचता हुआ राजा कुलंकर व्रत ग्रहण से परांगमुख होकर रहने लगा।
कुलंकर राजा की एक रानी थी श्रोदामा। वह पुरोहित के साथ सदा आसक्त रहती थी। राजा के व्रत लेने के निश्चय से वह प्रसन्न . हुई किन्तु जब उसे ज्ञात हुआ कि प्रबजित होने का निर्णय टल गया तो उसका हृदय शंका से भर उठा। उसने सोचा-'संभवत: राजा को मेरे गुप्त सम्बन्धों का पता चल गया है। या तो मैं इसे मार