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४०० | जैन कथामाला (राम-कथा)
एक दिन मुनि नारद लंका की राज्य सभा में जा पहुँचे । विभीषण आदि सभी ने उनका अभिवादन किया और आदरपूर्वक विठाया । श्रीराम ने पूछा
- देवर्षि ! कहाँ से आगमन हो रहा है ?
-अयोध्या से । - देवर्षि का संक्षिप्त सा उत्तर था ।
- क्या दशा है अयोध्या की, भाई भरत, शत्रुघ्न और माताओं के समाचार भी वताइये | - राम की उत्सुकता जाग उठी थी ।
- तुम्हें क्या मतलब है इन सब वातों से, तुम तो यहाँ सुख भोगो । – नारद के मुख पर उत्तेजना आ गई |
राम का हृदय आशंका से भर गया । आग्रह करने लगे-बताइये नारदजी ! अयोध्या में सव कुशल तो हैं। मुझसे किसी को कोई शिकायत तो नहीं ।
- और किससे शिकायत है ?
- कहिए तो मेरा अपराध क्या है ?
-
नारद कहने लगे
-मैं धातकीखण्ड से आया तो अयोध्या के राजमहल में उदासी और चिन्ता छाई हुई थी । मैंने माताओं से पूछा - 'आप लोगों को क्या चिन्ता है ?' तो उन्होंने बताया- ' सीता को रावण चुरा ले गया हैं । इसी कारण राम और रावण में युद्ध ठन गया है । लक्ष्मण को शक्ति लगी है । उसके बाद की हमको कोई खबर नहीं । न जाने हमारे पुत्रों पर क्या गुजरी ? हम सब इसी बात से चिन्तित हैं ।' मैं पूछता हूँ कि तुम उन्हें अपनी कुशलता के समाचार भी न दे सके । तुम्हें अपने सुखों से इतना भी अवकाश नहीं मिला !
श्रीराम ने अपनी भूल अनुभव की । वे लज्जित स्वर में बोले—मैं अभी माता के पास कुशलता के समाचार भेजता हूँ ।