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________________ विभीषण का राज्यतिलक | ३६६ -स्वामी ! यह सब आपका है। आप ही इस समस्त राज्य, समृद्धि, धन-सम्पत्ति आदि के स्वामी हैं। मैं तो आपकी आज्ञा का. पालन करने वाला दास हूँ। -विभीषण ! तुम ऐसे विपरीत वचन. क्यों वोलते हों ? लंका का राज्य तो मैं पहले ही तुम्हें दे चुका हूँ। तुम यह क्यों भूल गये ? __यह कहकर राम ने उसका राज्याभिषेक कर दिया । सिंहोदर आदि विभिन्न राजाओं को दिये हुए वचनों की स्मृति श्रीराम को हो आई । विद्याधरों द्वारा उन सबके पास निमन्त्रण भेज दिया गया। सभी अपनी-अपनी कन्याओं के साथ आये और उन सब के साथ अपनी-अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार लक्ष्मण का विवाह धूमधाम से सम्पन्न हो गया । सग्रीवादि की सेवा से राम-लक्ष्मण और सीता का समय सुख से व्यतीत हो रहा था। वहत दिनों के वियोग के बाद सीता का मिलन राम से हआ था। उसके हर्ष की सीमा न थी। इसी प्रकार वनमाला भी लक्ष्मण को पाकर स्वयं को सौभाग्यशाली समझ रही थी। ___ लंका में निवास करते-करते सवको छह वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो गया किन्तु ऐसा मालूम हुआ मानो दो-चार दिन बीते हों। सुख के दिन वास्तव में बड़े छोटे होते हैं। ___ इसी वीच विन्ध्यस्थली पर इन्द्रजित और मेघवाहन ने सिद्धि प्राप्त कर ली। उन्हों के नाम पर उस तीर्थ का नाम मेघरथ पड़ गया। नर्मदा नदी में कुम्भकर्ण के सिद्धि पाने के कारण उस तीर्थ का नाम पृष्ठरक्षित पड़ा।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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