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३६६ / जैन कयामाला (राम-कथा) __मानव सदैव ही शोक-संतप्त नहीं रह सकता। नियति के समक्ष सिर झुकाकर उसे सन्तोष करना ही पड़ता है । शोक का आवेग कुछ कम हुआ तो चिता सजाई गई और महावली दशमुख का शव उस . पर रख दिया गया। श्रीराम ने अपने आँसुओं की जलांजलि उस पर चढ़ाई। सभी ने संवेदना और सहानुभूति प्रकट की। चिता को आग लगा दी गई और रावण का पार्थिव शरीर लपटों के मध्य चमकने लगा।
रावण की अन्तिम क्रिया पूरी हुई तो राम-लक्ष्मण ने अमृतसम मधुर शब्दों से कुम्भकर्ण आदि राक्षसवीरों को सम्बोधित करके कहा
-वीरो! पहले के समान ही तुम लोग अपना राज्य करो। हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। __ राम-लक्ष्मण की उदारता से सभी चकित रह गये। उन्होंने तो समझा था कि अब लंका का राज्य राम के अधीन हो गया। उनके हृदय में भी राज्य के प्रति विरागता के भाव जागे। गद्गद स्वर से वोले
-इस राज्य के प्रति हमें भी मोह नहीं रहा । हम तो अक्षय राज्य (मोक्ष पद) के अभिलाषी हैं । आप हमें आज्ञा दीजिए।
उनके उच्च विचारों से राम-लक्ष्मण के हृदय कमल खिल गये ।
सौभाग्य से दूसरे दिन प्रातः ही देव दुन्दुभि बजने लगी और आकाश में देव-विमान जाते हुए दिखाई देने लगे। वे सब कुसुमायुध उद्यान में केवली अप्रमेयवल का कैवल्योत्सव मनाने जा रहे थे। रात्रि को ही चतुर्ज्ञानी मुनि को केवलज्ञान हुआ था। __ राम-लक्ष्मण तथा कुम्भकर्ण, इन्द्रजित, मेघवाहन आदि सभी केवली के समवसरण में पहुंचे। केवली भगवान की कल्याणकारी देशना सुनने के पश्चात इन्द्रजित और मेघवाहन ने वैराग्य पाकर अपने पूर्व-भव पूछे।
केवली मान जाते हुए ही देव दुन्दुभि कमल खिल गये।