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________________ ३७८ | जैन कथामाला (राम-कथा) मन्त्रियों ने अनुभव किया कि उनके मुख से ऐसा शब्द निकल गया जो स्वामी की रुचि के प्रतिकूल है । संभलकर वोले -- - तो सन्धि का प्रयास किया जा सकता है । यह कार्य राजाओं के लिए उचित और सम्माननीय है । - हाँ, सन्धि अवश्य की जा सकती है किन्तु इसमें भी कुछ न कुछ देना पड़ेगा । - दशमुख ने सोचते हुए कहा । - देना पड़ेगा तो प्राप्त भी होगा । - मन्त्रियों ने बात सँभाली । - हाँ, यह तो सत्य है । सन्धि में लेन-देन दोनों ही होते हैं । यह बात अलग है कि किसी को कम मिले और किसी को अधिक । मन्त्रियों ने समझाया - लंकेश्वर ! आपको कुम्भकर्ण जैसा भाई और इन्द्रजित तथा मेघवाहन जैसे सुपुत्रों के साथ अनेक राक्षसवीर माँग लेने चाहिए | सभी बन्दियों को मुक्त करा लेना हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है । दशमुख ने निराश स्वर में कहा -मैंने तो सोचा था कि लक्ष्मण मेरी शक्ति से प्रातः तक मर हो जायेगा और भातृस्नेह के कारण राम भी प्राण त्याग देगा । मेरे सभी सुभट स्वयं ही मुक्त हो जायेंगे । किन्तु लक्ष्मण के सजीवित होने से स्थिति बदल गई है। सन्धि करके ही स्वजनों को बन्धन - मुक्त करना पड़ेगा । —यही उचित है । - मन्त्रियों ने समर्थन कर दिया । . रावण ने सामन्त नाम के चतुर दूत को वुलाया और अपना अभिप्राय समझाकर कहा- राम को साम दाम दण्ड भेद किसी भी प्रकार से अपने अनुकूल करना है । 'जो आज्ञा' कहकर दूत चलने लगा तो मन्त्रियों ने दवी जवान से सीताजी को वापिस देने की बात कही । लेकिन रावण ने स्पष्ट कह
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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