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३६० | जैन कथामाला (राम-कथा)
-वापिस चला जाऊँगा, लंकेश्वर ! आप सीताजी को दे द।
सीताजी का नाम सुनते ही रावण की भृकुटी टेढ़ी हो गई। बोला
-मूर्ख ! वार-बार तू मुझे सीता का नाम लेकर चिढ़ाता है। मैं आज राम-लक्ष्मण दोनों को मारकर इस रोग की जड़ ही मिटाये देता हूँ।
-आप क्या मारेंगे उनको ! स्वयं अपने प्राणों की खैर मनाइये।
-बहुत घमण्ड हो गया है अपने आश्रयदाता का ! कल ही तो आश्रय लिया है और आज ही उनका गुणगान करने लगा। .. -गुणवानों की प्रशंसा तो की ही जाती है।
-खुशामदी और देश तथा कुल के गद्दार ! कल तक लंकापुरी, राक्षसकुल और मेरे गुणगान करता था और आज गिरगिट की तरह रंग वदल गया। अव तुझ पर स्नेह दिखाना वेवकूफी है। संभाल अस्त्र !-रावण क्रोध से धकधका उठा।
उसने धनुष्टंकार किया । तीव्र और कठोर ध्वनि ले दिशाएँ काँप गई। विभीषण भी पीछे न रहा, उसने भी धनुष पर वाण चढ़ाया और अग्रज पर छोड़ दिया । अनुज और अग्रज सांघातिक युद्ध में लीन हो गये-मानो जन्म-जन्म के शत्रु हों।
भाई-भाई को आपस में भिड़ा देखकर कुम्भकर्ण आदि सभी युद्ध में कूद पड़े । कुम्भकर्ण का प्रतीकार राम ने, इन्द्रजित का लक्ष्मण ने, सिंहजघन का नील ने, घटोदर का दुर्मर्ष, दुर्मति का स्वयंभू, शम्भू का नील, मय राक्षस का अंगद, चन्द्रनख का स्कन्द, केतु का भामण्डल ने प्रतीकार किया । जम्बूमाली के समक्ष श्रीदत्त आ डटां तो कुम्भकर्ण के पुत्र के सम्मुख हनुमान । सुमाली का मुकाबला सुग्रीव ने और धूम्राक्ष का कुन्द ने किया। सारण राक्षस और