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३४४'जैन कथामाला (राम-कथा) । रावण के इन शब्दों को सुनकर विभीषण राजसभा से बाहर आया और विद्याधर तथा राक्षसों की तीस अक्षौहिणी सेना के साथ लंका से बाहर निकल गया।
राजनीति का सिद्धान्त है शत्रु का शत्रु अपना मित्र होता है। इस समय रावण विभीषण का शत्रु था और रावण के शत्रु थे राम । विभीषण भी इसी सिद्धान्त के अनुसार राम के समीप जा पहुंचा।
सुभटों ने जो विभीषण को तीस अक्षौहिणी सेना के साथ आते . देखा तो चिन्तित हए। उन्होंने तत्काल यह समाचार राम को बताया। राम अपने विश्वासपात्र सुग्रीव की ओर देखने लगे।
श्रीराम का आशय समझकर सुग्रीव बोला-स्वामी ! राक्षस तो स्वभाव से ही मायावी होते हैं । विभीषण
विशेष-उत्तर पुराण में यहाँ कुछ विशेषता है(१) लक्ष्मण ने जगत्पाद नाम के पर्वत पर प्रज्ञप्ति विद्या सिद्ध की ।
(उत्तर पुराण ६८, ४६८-४७०) सुग्रीव ने सम्मेतशिखर पर अनेक विद्याओं की पूजा की।।
कुम्भकर्ण आदि भाइयों ने भी रावण के इस कार्य (सीताहरण) की भर्त्सना की है।
(पर्व ६८, श्लोक ४७३-७४) (२) यहाँ रावण और विभीषण में तलवार खींचने तथा स्तम्भ उखाड़कर सामना करने का कोई उल्लेख नहीं है।
(३) विभीषण श्रीराम की सेवा में गया तो उसके साथ कोई सेना नहीं थी।
विभीषण ने सोचा इसने (रावण ने) मेरा तिरस्कार करके । निकाल दिया है यह मेरे हित में ही है । 'अव मैं रामचन्द्रजी के चरणों में जाता हूँ यह निश्चय कर वह सुजनता के साथ चला और शीघ्र ही रामचन्द्रजी के पास जा पहुंचा।
(श्लोक ४६६-५०१.)