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निर्भय किया, शासकों को प्रजा की सेवा के लिए प्रेरित किया। यह उसका प्रताप ही था कि उसके राज्य में जनता सुखी और समृद्ध थी। धन्य-धान्य
और सुख-समृद्धि से आप्लावित सोने की लंका तो वैदिक परम्परा को भी मान्य है। __रावण के चरित्र में केवल एक ही दोप है और वह है छलपूर्वक सती सीता का अपहरण । वह सीता की विरहाग्नि में तिल-तिल जलता है, छटपटाता है किन्तु 'नहीं इच्छती नारी को नहीं भोगूंगा' अपने इस नियम का भंग नहीं करता, अपने वश में पड़ी सीता पर बलात्कार नहीं करता । वह अपनी गरिमा को कायम रखता है और शूर्पणखा की तरह सीता को न अपमानित करता है और न ही कुरूप बनाता है (जैसा कि श्रीराम लक्ष्मण ने किया था)। उसकी प्रतिशोधाग्नि इस सीमा तक नीचे नहीं गिरती कि अपने भानजे और वहनोई के प्राणान्त करने वाले तथा वहन का अपमान करने वालों का बदला सीताजी से चुकाता ।
जैन परम्परा में रावण का चरित्र पाप की प्रतिमूर्ति के रूप में चित्रित 'न होकर एक ऐसे व्यक्ति के रूप मे चित्रित किया गया है जिसमें गुण भी हैं
और दोष भी है । सीताहरण ही उसका ऐसा अक्षम्य अपराध है जिसके कारण उसका नाश हुआ, लंका का विध्वंस हुआ और राक्षस जाति भी पतन के गर्त में सदा के लिए समा गई। कुम्भकर्ण
कुम्भकर्ण राक्षसराज रावण का अनुज था । वैदिक परम्परा के अनुसार वह महा आलसी और छह महीने तक सोने वाला है । उसका रूप भी भयभीत करने वाला है । वह अति विशाल शरीर भोर तामसी वृत्ति वाला है । उसका केवल एक ही गुण है और वह है रावण की आज्ञा पालन करना। उसकी आजा से वह राम के विरुद्ध युद्ध भूमि में जाता है, अपना वल प्रगट करता है और राम के वाण से वीर गति प्राप्त करके मुक्त होता है।
जन परम्परा इसका नाम भानुकर्ण मानती है । इसके अनुसार वह न आलसी है और न ही उसका रूप भयोत्पादक है। वह छह महीने तक सोता