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लंका में प्रवेश | ३२७ के कारण पुरुष को इस जन्म में दुःख और अपयश उठाना पड़ता है तथा मृत्यु के वाद तो नरकगति का द्वार खुला ही है ।
-~~-अवश्य ही प्रयास करूंगा कि भाई को दुर्गति न हो। यह कहकर विभीषण ने वात समाप्त कर दी।
वीर हनुमान निर्भय लंकापुरी में विचरण करते हुए देवरमण उद्यान के समीप आये । दूर से ही उन्होंने देखा-सीताजी अशोकवृक्ष के नीचे बैठी थीं। उनके रूग्वे केश कपोलों पर उड़ रहे थे, होठ सूखे, मुख उदास, वस्त्र मलीन, शरीर सूखकर काँटा हो गया था। निरन्तर वहती अश्रुधारा से भूमि गीली हो गई थी। उस विरह विथुरा सती की ऐसी दीन दशा देखकर हनुमान की आँखें भी भर आईं। उनके हृदय में विचार-तरंग उठी-'अहो ! यह सीता महासती है। इसके दर्शन मात्र से ही तन-मन पवित्र हो जाता है । ऐसी सुशील पतिव्रता पत्नी के विरह से राम व्याकुल क्यों न हों ? बड़े भाग्य से ऐसी सती प्राप्त होती है। इसका विरह-दावानल अवश्य रावण को जलाकर खाक कर देगा।' __यह सोचकर हनुमान विद्यावल से अदृश्य हो गये। उन्होंने श्रीराम की मुद्रिका सीता के अंक में डाल दी । मुद्रिका देखते ही सीता के सूखे होंठों पर मुस्कान खेल गई मानो द्वितीया का चन्द्र विहंस गया हो। उत्सुक होकर सती इधर-उधर देखने लगी। किन्तु कोई भी दिखाई नहीं पड़ा-सिवाय त्रिजटा आदि रक्षिकाओं के।
त्रिजटा ने सीता की मुख-मुद्रा देखकर अनुमान लगा लिया कि वह आज प्रसन्न है । दासी ने अपना कर्तव्य पालन किया। तुरन्त रावण को समाचार पहुँचाया कि 'आज पहली वार सीता के मुख पर मुस्कराहट आई है।'
रावण ने समझा कि सीता मुझ पर अनुरक्त हो गई है।