________________
३२० | जैन कथामाला (राम-कथा) में विलम्ब कर रहा हूँ। निकला था सीता की खोज में जूझ पड़ा रण में । पर अब क्या हो सकता है ? यह युद्ध तो जोतना ही पड़ेगा।' यह सोचकर वीर हनुमान ने क्रोध मे शस्त्र प्रहार किया और प्रसन्नकीर्ति के रथ सारथि आदि का विग्रह कर दिया। प्रसन्नकीति को बाँध लिया । राजा महेन्द्र युद्ध करने आये तो पराक्रमी हनुमान ने उनकी भी यही दशा की। पिता-पुत्र दोनों को बाँधकर हनुमान ने विनयपूर्वक कहा
-मैं सती अंजना का पुत्र हनुमान हैं। आपने मेरी माता को निरपराध ही निकाल दिया था यह स्मृति आते ही मुझे क्रोध आ गया और आपसे युद्ध कर बैठा । आप मुझे क्षमा करें। ___ यह कहकर हनुमान ने उनके बन्धन खोल दिये।
क्रोध का आवेग उतर जाने पर व्यक्ति विनम्र हो ही जाता है । हनुमान भी विनम्र हो गये थे। राजा महेन्द्र ने उन्हें गले लगा कर; कहा
-मैंने तुम्हारी वीरता की चर्चा तो बहत सूनी थी आज अपनी आँखों से देख ली । अव घर चलो और सुख से रहो। ___-घर तो मैं नहीं जा सकूँगा। हनुमान ने विनम्र प्रतिवाद किया। ___ .-क्या अब भी तुम्हारा क्रोध शान्त नहीं हुआ ? __ -क्रोध तो शान्त हो गया, किन्तु स्वामी के कार्य से जा रहा हूँ।
-कौन स्वामी ? कैसा कार्य ? – राजा महेन्द्र ने पूछा।
हनुमान ने अपने मातामह को पूरी बात कह सुनाई। राजा महेन्द्र ने सव कुछ सुनकर प्रेरणा दी
--तो तुम शीघ्र ही ज़ाओ । तुम्हारा मार्ग सुखमय हो । मातामह का आशीर्वाद लेकर हनुमान लंका की ओर चल पड़े।