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३१४ | जैन कथामाला (राम-कथा) वह विमान से पुकार कर रही थी—'हा नाथ रामचन्द्र ! अरे वत्स लक्ष्मण ! हे भाई भामण्डल मुझे बचाओ।' इसी से मुझे विश्वास हो गया कि वह जानकी ही थी।
प्रसन्न होकर सुग्रीव बोला
-मित्र ! तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है । अभी मेरे साथ चलो। __यह कहकर सुग्रीव उसे उठाकर राम के पास ले आया। राम उससे बार-बार सीता का समाचार पूछते और वह बार-बार बताता। फिर भी राम की तृप्ति नहीं हो रही थी। विरह व्याकुल हृदय ऐसा ही होता है।
राम ने सुग्रीव आदि से पूछा-लंकापुरी यहाँ से कितनी दूर है ? सुभटों ने एक स्वर से उत्तर दिया-~-पास हो या दूर, क्या अन्तर पड़ता है ? -क्यों?
- इसलिए कि त्रिखण्डेश्वर रावण के सामने हम सब तिनके हैं। उस पर विजय पाना हमारे लिए असम्भव है।
-असम्भव है, या सम्भव, तुम लोग इसकी चिन्ता मत करो। तुम तो हमें लंकापुरी दिखा दो।
-नहीं स्वामी ! लंका की ओर आँख उठाकर देखना भी. मृत्यु को निमन्त्रण देना है। -सभी सुभटों के स्वर भयभीत थे।
लक्ष्मण से रहा नहीं गया। वे बोल पड़े
-कौन है, यह रावण ? जिसने कौए की भांति अन्यायपूर्ण यावरण किया है । मैं इसका सिर काटकर जमीन पर पटक दूंगा।
जंबवान ने विनीत शब्दों में कहा
~स्वामी ! उत्तेजित होने से क्या लाभ ? शान्तिपूर्वक सोचविचारकर कार्य कीजिए । रावण का वध बच्चों का खेल नहीं है ।