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________________ ३१२ | जैन कथामाला (राम-कथा) - अरे वानर ! काम निकलते ही कृपालु राम को ही भूल गया । अभी मृत्यु का द्वार बन्द नहीं हुआ है । सुग्रीव थर-थर काँपने लगा । वह खड़ा न रह सका, लक्ष्मण के चरणों में गिर पड़ा और बोला ^ -क्षमा महाभुज ! अपराधी को क्षमा करो । अनेक प्रकार से विनय करके उसने लक्ष्मण के कोप को शान्त किया । लक्ष्मण को आगे करके लज्जा से नीचा मुख किये अपने सुभटों के साथ सुग्रीव तुरन्त राम के सम्मुख आया और चरणों पर गिरकर बोला - प्रभु ! मेरे प्रमाद को क्षमा कीजिए। मैं अल्पबुद्धि सुखों में डूबकर आपको ही भूल गया । नाथ ! आप स्वामी हैं और मैं सेवक । मुझ पर प्रसन्न हों | विशालहृदय राम ने उसे अभय दिया। स्वामी का वरद् हस्त सिर पर आते ही सुग्रीव का साहस लौटा। उसने अपने सुभटों को आज्ञा दी - — जाओ, सब जगह सीताजी की खोज करो । पराक्रमी और अस्खलित गति वाले वेगवान सुभट सभी दिशाओं की ओर चल दिये । राम से आज्ञा लेकर सुग्रीव भी स्वयं सीताजी की खोज में निकल पड़ा । अनुक्रम से घूमते-घामते सुग्रीव कम्बुद्वीप में आया । दूर से ही रत्नजटी ने उसे देखा तो सोचने लगा - 'अब रावण ने मुझे मारने के
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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